Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 104
________________ का पुण्य हो इस उद्देश्य से देवे-यह तीसरा 'व्यपदेश नामक अतिचार हे। 4. मत्सर आदि कषाय पूर्वक दान देना, यह चौथा मत्सरता नामक अतिचार है। 5 . समय बीत जाने पर भिक्षा आदि के लिये निमंत्रण करना, यह कालातिक्रम नामक पाँचवा अतिचार है। इनमें से कोई अतिचार लगा हो तो उसकी मैं निंदा करता हूँ ||30|| 1. साधु-साध्वी उत्तम सुपात्र 2. देश विरति श्रावक-श्राविका मध्यम सुपात्र, 3. अविरत सम्यगदृष्टि श्रावक-श्राविका जघन्य सुपात्र हैं। अतिथि संविभाग सुपात्र का ही किया जाता है। देखो महाराज इतना मंहगा कपड़ा मेरे अलावा आपको कोई नहीं दे सकता। अ - 4 मात्सर्य अहंकार प्रदर्शन करते हुए दान देना (बारहवें व्रत में संभावित अन्य अतिचारों की आलोचना ) अ, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा । तं निंदे तं च गरिहामि ||31|| शब्दार्थ सुहिए अ दहिए रागेण व दोसेण व, सुहिएसु- सुविहितों पर, सुखियों पर । - और । दुहिए - दुःखियों पर । अणुकंपा - दया, भक्ति, अनुकंपा । रागेण - राग से, ममत्व से । भोजन समाप्त) हो गया व - अथवा । दोसे- द्वेष से । तं - उसकी । निंदे - मैं निन्दा करता हूँ। गरिहामि - गुरु के समक्ष गर्हा करता हूँ। 92 5- कालातिक्रम भिक्षा का समय बीत जाने - पर साधु के आने से पहले ही भोजन समाप्त कर देना। अ - तथा । जा - जो। में - मैंने । अस्संजएसु - असंयतों पर । भावार्थ : 1. ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों वाले ऐसे सुविहित साधुओं पर अथवा वस्त्र - पात्रादि उपधि (उपकरण) यथायोग्य होने से ऐसे सुखी साधुओं पर 2. व्याधि से पीड़ित, तपस्या से खिन्न या वस्त्र - पात्रादि यथायोग्य उपधि से विहीन होने से दुःखी साधुओं पर 3. (जो गुरु की निश्रा आज्ञा अनुसार वर्तते हैं उन्हें अस्वयत कहते हैं ऐसे) अस्वयत साधुओं पर अथवा जो संयमहीन है, पासत्थादि है या अन्य मत के कुलिंगी ऐसे असंयम साधुओं पर, यदि मैंने राग से अथवा द्वेष से भक्ति की हो अर्थात् चारित्रादि गुण की बुद्धि बिना (गुणको दृष्टि में रखकर) यह साधु मेरा संबंधी है, कुलीन है या प्रतिष्ठित है इत्यादि राग (ममत्व) के वश होकर भक्ति अनुकंपा की हो अथवा यह साधु धन-धान्यादि रहित है, कंगाल है, जाति से निकाला हुआ है, भूख से पीड़ित है, इसके पास कोई भी निर्वाह का साधन नहीं, निर्लज्ज होकर बार-बार आता है, यह घिनौना है, इसको कुछ देकर जल्दी निकाल दो इत्यादि घृणा पूर्वक या, निन्दापूर्वक, या द्वेष पूर्वक वस्त्र - पात्र अन्न, पानी आदि देकर अनुकम्पा की हो उसकी मैं निंदा करता हूँ और गुरु की साक्षी से गर्हा करता हूँ ||31||

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