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हुए मानसिक अतिचारों को 'मैंने यह अनुचित चिंतन किया है' ऐसा विचार कर आत्म निन्दा करने रूप शुभ मनोयोग से प्रतिक्रमण करता हूँ। इस प्रकार सर्वव्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण करना चाहिये ||34||
( अब विशेष रूप से कहते हैं)
वंदन-वय-सिक्खा-गारवेसु, सण्णा - कसाय - दंडेसु । गुत्ती असमिसु अ, जो अइआरो अ तं निंदे ||35 ||
वंदन - वन्दन।
वय - व्रत ।
सिक्खा - शिक्षा |
गारवेसु - गारव के विषय में ।
सण्णा - संज्ञा ।
कसाय - कषाय ।
दंडे - दंड के विषय में।
गुत्ति - गुप्तियों के विषय में ।
शब्दार्थ
• और ।
अ -
समिईसु - समितियों के विषय में।
अ - और
जो - जो ।
अइआरो - अतिचार ।
अ - तथा।
तं - उसकी ।
निंदे - मैं निन्दा करता हूँ।
भावार्थ : वंदन, व्रत, शिक्षा, समिति और गुप्ति करने योग्य है, इनको न करने से जो अतिचार लगे हों, तथा गारव, संज्ञा, कषाय, और दंड ये छोड़ने योग्य हैं, इनको करने से जो अतिचार लगे हों उनकी मैं निंदा करता
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नोट- वंदितु सूत्र के शेष 15 गाथाओं का विवेचन अगले भाग में प्रकाशित होगा।
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