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(जो साधुओं के लिये करने योग्य न किया हो उसकी आलोचना)
साहूसु संविभागो, न कओ तव-चरण-करण-जुत्तेसु। संते फासु-अदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि ||32||
शब्दार्थ साहुसु - साधुओं के विषय में।
जुत्तेसु - युक्त। संविभागो - अतिथि संविभाग।
संते - होने पर भी। न कओ - न किया हो।
फासुअदाणे - प्रासुक, अचित्त, साधु को देने योग्य तव- तप।
न दिया हो। चरण-करण - चरण-करण से।
तं निंदे - उसकी मैं निन्दा करता हूँ। तंच - तथा उसकी।
गरिहामि - मैं गुरु की साक्षी से गर्दा करता हूँ। भावार्थ : निर्दोष अन्न-पानी आदि साधु को देने योग्य वस्तुएं अपने पास उपस्थित होने पर भी तपस्वी, चारित्रशील, क्रियापात्र साधु का योग होने पर भी मैंने प्रमादादि के कारण उसे दान न दिया हो, तो ऐसे दृष्कृत्य की मैं निंदा करता हूँ और गुरु महाराज की साक्षी में गर्दा करता हूँ ।।32।।
(संलेखना (अनशन) व्रत के अतिचारों की आलोचना) इह-लोए पर-लोए, जीविअ-मरणे अ आसंस-पओगे। पंचविहो अइयारो, मा मज्झ हुज्ज मरणंते ||33।।
शब्दार्थ इहलोए - इस लोक की।
पंचविहो - पाँच प्रकार का। परलोक - परलोक की।
अइयारो - अतिचार। जीविअ - जीवित रहने की, जीने की। मा - नहीं, न। मरणे - मरने की।
मज्झ - मुझे होवें । अ-च - और काम भोग की।
हुज्ज - हो। आसंस - इच्छा का।
मरणंते - मृत्यु के अन्तिम समय तक, मरण पर्यन्त। पओगे - करने से।
भावार्थ : संलेखना व्रत के पाँच अतिचार हैं - 1. इहलोकाशंसा-प्रयोग 2. परलोकाशंसा-प्रयोग 3. जीविताशंसा-प्रयोग 4. मरणाशंसा-प्रयोग और 5. कामभोगाशंसा-प्रयोग। ___ 1. धर्म के प्रभाव से इस मनुष्य लोक के सुख पाने की वांछा करना अर्थात “मैं यहाँ से मर कर राजा अथवा सेठ आदि बनूँ इत्यादि सुख की वांछा करना यह पहला अतिचार है।
तागासस
POOOOOOOOK
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