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ध्यान के समय दोनों होठ बंद रखना, दृष्टि को नाक के अग्रभाग पर अथवा जो आलम्बन निश्चित किया हो उस पर स्थिर रखना, मुख-मुद्रा को प्रसन्न रखना, कमर को सीधी रखना, प्रमाद रहित होना, ध्यान के लिए ये सामान्य नियम हैं।
ध्यान का काल
सामान्यतया सभी कालों में शुभ भाव संभव होने से ध्यान साधना का कोई विशिष्ट काल नहीं कहा गया है। जिस समय मन, वचन एवं काया स्वस्थ प्रतीत हो रहे हों, वह समय ध्यान के लिए उचित माना है। वैसे प्रारंभिक साधक के लिए नियत समय व स्थल ज्यादा उपयोगी होते हैं।
ध्यान के अंग ध्याता अर्थात् ध्यान करने वाला। ध्येय अर्थात् ध्यान करने योग्य आलम्बन (जिसका ध्यान किया जाना है ) ध्यान-ध्याता का ध्येय के लिए स्थिर होना ही ध्यान हैं। जैन साधना में ध्यान ध्यान के प्रकार ध्यान के मुख्य दो भेद किए गये है। 1. अप्रशस्त (अशुभ) ध्यान 2. प्रशस्त (शुभ) ध्यान और
1. मन की धारा जब बहिर्मुखी होती है तब मनुष्य, धन, परिवार, शरीर आदि की चिंता में तथा क्रोध, दीनतादि युक्त हिंसादि प्रधान पापात्मक भावों में खोया रहता है। उस स्थिति में मन की धारा संक्लिष्ट वं अधोमुखी होकर अशुभ की ओर बहती है। इसे अप्रशस्त या अशुभ ध्यान कहते हैं।
2. जब मन की विचारधाराएं करुणा, दया, भक्ति, क्षमा आदि आत्मा-परमात्मा के चिंतन की ओर बढ़ती है तब वह उर्ध्वमुखी होती है। ऐसी स्थिति में मन शांत व समाधि युक्त शुभ या शुद्ध की ओर गति करता है अतः इसे शुभ या प्रशस्त ध्यान कहा जाता हैं। __ जैसे गाय का भी दूध होता है और आक का भी दूध होता है। दोनों सफेद होते हुए भी उनके गुण धर्म में महान अन्तर होता है। एक अमृत का काम करता है और एक विष का काम करता है। एक जीवन शक्ति देता है तो दूसरा जीवन को नष्ट कर डालता है। शुभ और अशुभ ध्यान में भी यही अन्तर है। शुभ ध्यान मोक्ष का हेतु है और अशुभ ध्यान दुर्गति का कारण हैं। आर्तध्यान और रौद्रध्यान अशुभ ध्यान है तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान शुभ ध्यान है।
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