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उपर्युक्त दृष्टांत के माध्यम से स्पष्ट होता है - एक ही विषय को ले कर विचारों के प्रति भावों में कितनी भिन्नता होती है। इस भिन्नता के आधार से छः भाव लेश्याओं का वर्णन किया गया है।
* लेश्या के आधार पर गति - निर्धारण :- उत्तराध्ययन सूत्र में कृष्ण, नील व कापोत लेश्या को दुर्गति का कारण यानि नरक - तिर्यंच गति का हेतु बताया गया है तथा तेजो, पद्म व शुक्ल लेश्या को मनुष्य तथा देवगति बंध का कारण बताया है।
कहीं - कहीं यह भी उल्लेख मिलता है कि कृष्ण लेश्या से नरक गति, नील लेश्या से स्थावर, कापोत लेश्या से पशु-पक्षी रुप तिर्यंचगति, तेजो लेश्या से मनुष्यगति, पद्मलेश्या से सामान्य देवगति तथा शुक्ल | लेश्या से उच्च देवगति या सिद्धगति प्राप्त होती है।
लेश्याओं में बदलाव आता है और लाया भी जा सकता है। उच्च लेश्या के गुणों का व्रत, नियम, तप, त्याग, ध्यान, साधना, भावना आदि योगों से उच्च लेश्या आ सकती है एवं विपरीत योगों से प्रशस्त लेश्या भी गिरकर अप्रशस्त बन सकती है। अतः हर साधक को लेश्या विशुद्धि हेतु हर पल जागृत रहने जैसा है, यही लेश्या अध्ययन का सार है।
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