Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

View full book text
Previous | Next

Page 82
________________ प्रसन्नचंद राजर्षि ने ध्यानावस्था में खड़े-खड़े मन ही मन युद्ध करके नरक में जाने योग्य कर्म दलिक इक्कट्ठे कर लिये और फिर पश्चाताप आदि शुभ भावों में ऊँची श्रेणी चढ़कर नरक में जाते-जाते स्वर्ग में और फिर मोक्ष में जाने वाले बन गये । 8. उपशमन : बंधे हुए कर्मों को किसी प्रयत्न विशेष, स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा आदि द्वारा कुछ समय के लिए दबा देना या उन्हें किसी काल-विशेष के लिए फल देने में अक्षम बना देना उपशमन है। जैसे पानी में फिटकरी घुमाने से उसकी मिट्टी आदि नीचे बैठ जाती है और पानी स्वच्छ-साफ दिखाई देने लगता है। वैसे ही उपशमन क्रिया से कर्म को इस प्रकार दबा देना कि जिससे वह अपना फल नहीं दे सके। जैसे बर्तन के हिल जाने पर नीचे बैठा हुआ मैल ऊपर आ जाता है और जल को पुनः मलीन कर देता है, उसी प्रकार उपशमन की अवस्था के समाप्त होते ही कर्म पुनः उदय में आकर अपना फल देता हैं। उपशमन में कर्म की सत्ता नष्ट नहीं होती है, मात्र उसे काल - विशेष तक के लिए फल देने में अक्षम बनाया जाता है। उपशमन फिटकरी कचरा -निधत्त कर्मबंध शुद्ध जल स्थम्भित अर्जुनमाली वैल्डिंग की. हुई कीलें पानी में फिटकरी घुमाने से कचरा नीचे बैठ गया । मोक्ष गमन 9. निधति : कर्म की वह अवस्था निधति है जिसमें अग्नि से तपाई हुई सुइयों की तरह कर्म इतने दृढ़तर बंध जाते है या इतने प्रगाढ़ होते है कि जिसमें कर्म न अपने अवान्तर भेदों में रूपान्तरित हो सकते है और न अपना फल प्रदान कर सकते है। लेकिन इसमें कर्मों की काल मर्यादा • और रस की तीव्रता को कम-अधिक किया जा सकता है। 10. निकाचित: कर्मों का बंधन इतना प्रगाढ़ होता है कि उनकी तप द्वारा कर्मक्षय काल मर्यादा एवं अनुभाग में शान्त भाव से कष्ट सहते मुनि अर्जुन कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता या समय से पूर्व उनका फल भोग भी नहीं किया जा सकता। इस अवस्था में कर्म जिस रूप में बंधा हुआ होता है उसी रूप में उसे अनिवार्य रुप से भोगना पड़ता है। जिस प्रकार श्रेणिक राजा के बंधे नरक के कर्म भोगे बिना नहीं छूटे। कर्म की इस अवस्था का नाम निकाचित या नियति भी है। निकाचित घोर पाप का बन्ध करते। राजा श्रेणिक 70 • भट्टी में तपकर लोहा बनी सुइयाँ ● ● उपर्युक्त दस अवस्थाओं के स्वरूप और कार्य को देखते हुए यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि यदि कर्म के उदय में आने से पूर्व आत्मा सावधान हो जाए तो कर्म को अशुभ से शुभ में बदल सकती है, नरक आयु भोगता हुआ श्रेणिक का जीव

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134