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के सिर पर जलते
पहले पके आमः
इसलिए वे फिर से कर्म नहीं बांधते फलतः वे निमित्त की सत्ता पर विजय पा लेते है।
गज सुकुमार मुनि 4. उदीरणा :- कर्मों के उदय में आने की निश्चित समय से पहले ही Pir अंगारे रखता। उनकी स्थिति को कम (घात) करके उन्हें भोगकर निर्जरा कर देना A अर्थात् नियत समय से पूर्व सत्ता में रहे कर्म दलिकों को प्रयत्न विशेष से
खींचकर उदय में लाना और भोगना उदीरणा है। जैसे आम बेचने वाले सोचते है, वृक्ष पर आम समय आने पर पकेंगे इसलिए वे उन्हें जल्दी पकाने हेतु आम के पेड में लगे हुए कच्चे हरे आमों को तोड लेते है और
उन्हें भूसे, कार्बेट, पाल आदि में रखकर शीघ्र ही पका लेते है। उदीरणा का सामान्य नियम है, जिस कर्म - प्रवृत्ति का उदय चल रहा हो उसी कर्म के सजातीय प्रकृति की उदीरणा हो सकती है।
प्रत्येक बंधा हुआ कर्म निश्चित रुप से उदय से आएगा ही ऐसा कोई नियम नहीं है। यदि कर्म बांधने के बाद आलोचना प्रतिक्रमण पश्चाताप - प्रायश्चित, तप, त्याग आदि करके कर्म क्षय कर दिया वह कर्म नष्ट हो जाता है फिर उसके उदय में आने का प्रश्न ही नहीं उठता। बद्ध कर्म की काल मर्यादा पूर्ण होने से पूर्व यदि उस कर्म को शीघ्र क्षय करने की इच्छा हो तो क्षमा एवं समता भाव से तीव्र वेदना या असाता आदि सहन कर लेने से उदय काल परिपक्व न होते हुए भी उन कर्मों की उदीरणा कर ली जाती है। जैसे गजसुकुमाल मनि ने दीक्षा लेते ही श्मशान में जाकर ध्यान करते समय सोमिल द्वारा मस्तक पर पाल
ते अंगारे रखे जाने पर उसे अत्यंत समभावपूर्वक सहकर एक ही अहोरात्र (दिन - रात) में पूर्वबद्ध कर्मों की उदीरणा करके भोग लिए।
यहाँ साधक को ख्याल रखना है कि उदीरणा द्वारा कर्म के उदय में आने पर कषाय भाव न बढ पाए, अन्यथा उदीरणा से जितने कर्म कटते है उनसे कई गुणा अधिक कर्म बंध भी सकते है। जैसे कोई साधक तपस्या करके आतापना लेकर कर्मों की उदीरणा करके उन्हें क्षीण करने का प्रयास करता है किंतु साथ ही तपस्या या साधना का मद, शाप - प्रदान या ईर्ष्या - क्रोध आदि कषाय भाव हो तो कर्म क्षय होने के बजाय कर्मबंध का जत्था अधिक बढ़ जाएगा। इसलिए उदीरणा का पुरुषार्थ करते समय सावधानी रखना जरुरी है। 5. उदवर्तना :- बंधे हुए कर्मों की स्थिति और अनुभाग को बढा लेना अर्थात् उन कर्मों को और अधिक उग्र बना लेना उदवर्तना है। कोई व्यक्ति मंद कषाय के कारण बंधी हुई स्थिति और अनुभाग को वर्तमान में तीव्र कषाय करके बार बार उसी कर्म को करता है तो वह अपने तीव्र कषाय की अधिकाधिक प्रवृत्ति के कारण उस कर्म का उदवर्तन करता है फलतः उस कर्म की स्थिति और रस बढ़ जाता है।। जैसे किसी व्यक्ति ने पहले डरते - डरते संकोच करते हुए साधारण नशेवाली मदिरा का पान किया। उसके बाद उसे मदिरापान का चस्का लग जाने से वह बार बार उससे भी अधिक तेज नशेवाली मदिरा बिना संकोच के बेधडक पीने लग जाए
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