Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 78
________________ * कर्म की अवस्थाएँ जैन दर्शन में कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन मिलता है। मुख्य रूप से कर्मों की दस अवस्थाएं मानी गई है जो इस प्रकार है - 1. बंध 2. सत्ता 3. उदय 4. उदीरणा 5. उद्वर्तना 6. अपर्वतना 7. संक्रमण 8. उपशमन 9. निधत और 10. निकाचित । पानी में मिश्रित दूध 1. बंध :- कषाय युक्त परिणामों से या राग द्वेषमय प्रवृत्तियों (भोगों) से आत्मा में एक प्रकार की हलचल, स्पन्दन या कंपन उत्पन्न होता है। इस हलचल के कारण आत्मा अपने निकटवर्ती क्षेत्र में रहे हुए कार्मण वर्गणा के परमाणुओं को आकर्षित करता है और आत्मा के साथ उसका मिलना होता है। जैसे दूध में पानी मिलता है, उसी प्रकार आत्मा और कर्म का मिलना बंध है। बंध चार प्रकार का होता है। - प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग (रस) बंध और प्रदेश बंध। इनका वर्णन प्रथम भाग में पृ. 87 में किया गया है। अर्थात् 2. सत्ता :- • कर्मबंध की दूसरी अवस्था सत्ता है। बंधे हुए कर्म जब तक आत्म प्रदेशों के साथ लगे रहते है, न तो उदय में आते है, न ही किसी उपाय से उनकी निर्जरा होती है। उस अवस्था को सत्ता कहते है । जैसे किसी ने धन कमाकर तिजोरी में भरकर रख दिया। न तो उसका भोग किया, न ही किसी को दिया। इसी प्रकार कर्म जब तक न तो भोगे जाते है, न ही निर्जरित होते है तब तक वे सत्ता में रहते है। सता 00 - குத OO प्रत्येक कर्म अपने सत्ता काल के समाप्त होने पर फल दे पाते है। जब तक कर्म की काल मर्यादा परिपक्व नहीं होती तब तक उस कर्म का आत्मा के साथ संबंध बना रहता है। इस अवस्था का नाम ही सत्ता है। 66 जैसे-उपयोग-रहित-रुपया अलमारी में पड़ा रहता है। वैसे ही कर्मवर्गणाएँ आत्म- प्रदेश में सुप्त अवस्था में पड़ी रहती हैं। इसी को कर्म की सत्ता कहते हैं। कर्मबंध की इस अवस्था में कर्मों की शक्ति को रद्दोबदल की जा सकती है। उसकी फलशक्ति के प्रमाण और प्रकार दोनों ही परिवर्तनीय होते है। सत्तारुप कर्म जब तक उदय में नही आते तब तक उनका स्वरुप कुम्भकार के चक्र पर चढाए हुए और आकार लेते हुए मिट्टी के पिण्ड जैसा होता है। उसके आकार में परिवर्तन करने की स्वतंत्रता कुम्भकार के हाथ में होती है वैसे ही कर्म की अनुदय स्थिति अर्थात् सत्ता अवस्था में परिवर्तन या उसकी मात्रा में न्यूनाधिकता करने की स्वतंत्रता भी उस आत्मा में होती है। जैसे कुम्भकार द्वारा चाक (चक्र) पर चढाए हुए मिट्टी के पिण्ड की आकृति देने तथा आँवे में पकाने के बाद फिर उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता वैसे ही आत्मा भी कर्म की उदयावस्था के पश्चात् उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकती।

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