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निर्बल
सेवा
त्याला माना
सौपा (7) दूसरों की श्रेष्ठ भोजन सामग्री देखकर
ईर्ष्या नहीं करना। (8) साधु-साध्वियों को निर्दोष एवं उचित आहार बहराना।
ऐसा करने से “भोग लब्धि" प्राप्त होगी यानि भोग में किसी प्रकार का विघ्न नहीं आयेगा।
4. उपभोग्य पदार्थों की प्राप्ति में विघ्न डालना :- कोई व्यक्ति अपने मकान, वस्त्र, बर्तन, आभूषण आदि उपभोग्य पदार्थों का उपभोग कर रहा हो, उसमें ईर्ष्यावश विघ्न उपस्थित करने से, शुभ कार्यों में दीवार बनकर खड़े होने से उपभोगान्तराय कर्म का बंध होता है। पति-पत्नी का परस्पर झगड़ा कराने से, भक्ति साधना में बाधा डालने से, गुरु-शिष्य का संबंध विच्छेद करवाने से तथा माँ-बच्चे का विरह करवाने से भी इस कर्म का बंध होता है।
5. शक्ति को गोपन कर देनाः- शक्ति होने पर भी जो परोपकार के कार्य नहीं करता, धर्म क्रियाओं में प्रमाद करता है, साधु-साध्वियों की वैयावच्च नहीं करता, दूसरों के मन में अशांति पैदा करता है, धर्म कार्यों में रूकावट पैदा करता है आत्म कल्याण के साधक व्रत, तप, संयम की ओर अग्रसर होने वाले को जो निरुत्साहित करता है, तथा तन, मन की शक्ति का दुरुपयोग करता है इत्यादि कारणों से व्यक्ति वीर्यान्तराय कर्म बांधता है।
6. जिन पूजा आदि में विघ्न डालने से।
7. हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह रूप पापों को स्वयं सेवन करने से, दूसरों से कराने से और करते देख अनुमोदना करने से अंतराय कर्म का बंध होता है।
इस प्रकार कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ एवं उत्तर प्रकृतियों के स्वरूप, स्वभाव, प्रभाव एवं बंध के कारण को समझ कर उनसे बचने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि व्यक्ति सजग होकर चले और पदार्थों के प्रति निरपेक्ष व निर्लेप होकर राग-द्वेष या प्रीति-अप्रीति के भावों से बचकर रहे तो चारों ओर से होनेवाले कर्मबंध के प्रहार से बहुत कुछ अंशों से बच सकता है।
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