Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 88
________________ पयावणे पयणे (चारित्राचार में आरंभजन्य दोषों की आलोचना) छक्काय समारंभे, पयणे अ पयावणे अ जे दोसा। अत्तट्ठा य परट्ठा, उभयवा चेव तं निंदे ।।7।। शब्दार्थ छक्काय-समारंभे - पृथ्वीकाय आदि दोसा - दोष। छकाय जीवों की विराधना अत्ता - अपने लिये। हो ऐसी प्रवृत्ति से। य- अथवा पयणे - रांधते हुए। परवा - दूसरों के लिए अ- और। उभयट्ठा - दोनों के लिए। छक्कायसमारंभ पयावणे - रंधाते हुए। चेव - साथ ही निरर्थक अ- तथा। द्वेषादि के लिये। जे-जो। तं निंदे - उनकी मैं निन्दा करता हूँ। ___ भावार्थ : अपने लिये, दूसरों के लिये, अपने तथा दूसरों (दोनों) के लिये अथवा निरर्थक रागद्वेष के लिये स्वयं पकाने, दूसरों से पकवाने अथवा पकाने आदि की अनुमोदना करने से पृथ्वीकाय आदि छह काया के जीवों की विराधना के विषय में मुझे जो कोई दोष लगा हो उसकी मैं निंदा करता हूँ ||7|| II (सामान्य रूप से बारह व्रतों के अतिचारों की आलोचना) पंचण्हमणुव्वयाणं, गुणव्वयाणं च तिण्हमइआरे | सिक्खाणं च चउण्हं, पडिक्कमे देवसि सव्वं ||8|| - शब्दार्थ पंचण्हं - पाँच। सिक्खाणं - शिक्षाव्रतों के। अणुव्वयाणं - अणुव्रतों के। च - और। गुणव्वयाणं - गुणवतों के। चउण्हं - चार। च - और। पडिक्कमे देवसिअंसव्वं - तिण्हं - तीन। दैनिक इन सब दोषों से में अइआरे - अतिचारों से। निवृत्त होता हूँ। __भावार्थ : पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों में (इन बारह व्रतों में) दिन संबंधी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों उन सब से मैं निवृत होता हूँ ।।8।। entersbia

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