Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 52
________________ 4. तेजोलेश्या :- • तेजोलेश्या को पीत लेश्या भी कहा जाता है। यह लेश्या उपर्युक्त तीनों लेश्याओं से श्रेष्ठ मानी गई हैं ! इस लेश्या वाला जीव सरल स्वभावी, नम्र, निष्कपट, धार्मिक, आकांक्षा रहित, विनीत, संयमी, पाप से डरने वाला होता है। कार्य - अकार्य का ज्ञान, क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है, क्या बोलने योग्य है, क्या बोलने योग्य नहीं है, क्या सुनने योग्य है, क्या सुनने योग्य नहीं है ? क्या देखने योग्य है, क्या देखने योग्य नहीं है ? प्रत्येक कार्य में विवेक चक्षु का उपयोग करता है। वह अपनी उर्जा को व्यर्थ नहीं गँवाता। उसके मनोभावों में दूसरे के कल्याण की भावना भी होती है। वह प्रिय, दृढधर्मी तथा परहितैषी होता है। ऐसा व्यक्ति दूसरे का अहित भी करता है केवल उस स्थिति में जब दूसरे उसके हितों का हनन करते है। जैन आगमों में तेजोलेश्या की शक्ति को प्राप्त करने के लिए विशिष्ट साधना विधि का उल्लेख भी प्राप्त होता है। गोशालक ने भगवान महावीरस्वामी से तेजोलेश्या की जो साधना सीखी थी उसका दुरुपयोग उसने स्वयं भगवान महावीर स्वामी और उनके शिष्यों पर किया । परन्तु यह तेजो लेश्या यहाँ विवक्षित लेश्या न होकर एक लब्धि विशेष ही है। 5. पद्मलेश्या :- उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार मन्दत्तर कषाय, प्रशांत चित्त, जितेन्द्रिय अवस्था पद्मलेश्या के लक्षण है। इस अवस्था में क्रोध, मान, माया एवं लोभ रुप अशुभ मनोवृत्तियाँ अति अल्प अर्थात् प्राय समाप्त हो जाती है। प्राणी संयमी तथा योगी होता है। आसक्ति अत्यल्प होने से उसमें त्यागवृत्ति रहती है। इन्द्रियों, विषयों से विमुखता आती हैं वह अल्पभाषी, उपशांत एवं जितेन्द्रिय होता है। तेजोलेश्या परिणामी को सत्य का ज्ञान होता है और पद्मलेश्या परिणामी सत्य को जीना प्रारंभ कर देता है। वह मार्ग का ज्ञाता ही नहीं अपितु पथिक भी बन जाता है। उसमें मन्दत्तर कषाय की स्थिति रहती है। 6. शुक्ल लेश्या धर्म - ध्यान और शुक्लध्यान में प्रवेश लेने वाला शुक्ल लेश्या युक्त होता है, पिछली मनोवृत्ति के सभी शुभ गुण इस अवस्था में वर्तमान रहते है, लेकिन इसमें उनकी विशुद्धि की मात्रा अधिक होती है। जीव उपशांत, जितेन्द्रिय एवं प्रसन्नचित्त होता है। उसके जीवन का व्यवहार इतना मृदु होता है कि वह अपने हित के लिए दूसरो को तनिक भी कष्ट नहीं देना चाहता है। इष्टानिष्ट, अनुकूल प्रतिकूल सभी संयोगों में राग-द्वेष नहीं करता। निंदा - स्तुति, मान अपमान, पूजा - गाली, शत्रु - मित्र सभी स्थितियों में समत्व भाव में : - erse40

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