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* छः लेश्या * चित्त में उठने वाली विचार तरंगों को लेश्या कहा गया है। जैसे हवा का झोंका आने पर सागर में लहरों पर लहरें उठनी प्रारंभ हो जाती है, वैसे ही आत्मा में भाव कर्म के उदय होने पर विषय, विकार के विचार उठने लगते हैं। लेश्या आत्मा का परिणाम अध्यवसाय विशेष है। मन के अच्छे बुरे विचार या भाव है, जिस प्रकार स्फटिक रत्न के छिद्र में जिस रंग का धागा पिरोया जाता है, रत्न उसी रंग का दृष्टिगोचर होता है। उसी प्रकार आत्मा भी राग - द्वेष कषायादि विभिन्न संयोगों से अथवा मन - वचन - काया के योगों से वैसे
ही रुप में परिणत हो जाते हैं। जैन विचारकों के अनुसार लेश्या की परिभाषा यह है कि जो आत्मा को कर्म से | लिप्त करती है या जिसके द्वारा आत्मा कर्मलिप्त होती है अर्थात् बंधन में आती है उसे लेश्या कहते हैं।
___उत्तराध्ययन सूत्र में लेश्या का अर्थ आभा, कांति, प्रभा या छाया भी किया गया है। जैसे पदार्थों का वर्ण (रंग) होता है, उसी प्रकार मनोभावों व विचारों का भी एक रंग या वर्ण होता है, जिसे आभा, प्रभा और कांति कहा जाता है। इसे ही लेश्या कहते है। प्रत्येक वस्तु का अपना एक प्रभामंडल होता है जिसे 'ओरा' कहते है, जो वस्तु से निकलने वाली सूक्ष्म प्रभा को सूचित करता है। किसी का प्रभामंडल, शुभ उज्जवल होता है, तो किसी का मलिन और किसी का एकदम मलिन। जिस जीव की जैसी मनोभावना, चिंतन, आचरण और व्यवहार होता है, उसकी लेश्या भी उसी प्रकार की होती है। अतः लेश्या एक प्रकार से
आंतरिक मनोभावों का थर्मोमीटर है। | लेश्या का उद्गम कषाय और योग है। जहाँ इन दोनों का अभाव होता है, वहाँ लेश्या नहीं होती है।
उदाहरणार्थ चौदहवें गुणस्थान-अयोगी केवली में और सिद्धों में कषाय और योग न होने से लेश्या नहीं होती है। कषायों की मंदता - तीव्रता के अनुसार आत्मा के भावों में परिणमन होता रहता है। लेश्याएँ मनोभावों का वर्गीकरण मात्र नहीं है, वरन् चरित्र के आधार पर किये गये व्यक्तित्व के प्रकार भी है। किसी भी बात के लिए व्यक्ति की प्रतिक्रिया की मानसिकता को भी लेश्या कहा जा सकता है।
भावों की मलिनता एवं पवित्रता के आधार पर लेश्या के अनेक भेद हो सकते है। किंतु संक्षेप में लेश्या के छः भेद बताये गये है।
1. कृष्ण 2. नील 3. कापोत् 4. तेजस् (पीत) 5. पद्म और 6. शुक्ल
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