Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 37
________________ क्षणभंगुर है, इस प्रकार विचार करना अनित्य भावना है। 3. अशरण भावना : जन्म-जरा-मृत्यु से पीड़ित प्राणी के लिए कोई भी शरण रुप नहीं है, केवल वीतराग प्ररूपित धर्म ही शरण रूप है, इसको छोड़कर कोई भी जीव के लिए शरणभूत नहीं है, ऐसा चिंतन अशरण भावना है। 4. संसार भावना : संसार की विचित्रताओं का चिंतन करना, यथा एक भव की माता अन्य भव में स्त्री, पुत्र आदि बन जाती है, एक भव का पिता अन्य भव में पुत्रादि के रूप में हो जाते है इस प्रकार चिंतन करना संसार भावना है। इन चार भावनाओं से चित्त में वैराग्य उत्पन्न होता है। शरीर और संसार के प्रति आकर्षण कम हो जाता है और आत्मा समाधि के क्षणों में स्थिर हो जाती है । शुक्ल ध्यान ध्यान की सर्वोत्कृष्ट दशा शुक्ल ध्यान है। जो आत्मा के आठ कर्म रूपी मैल को धोकर उसको स्वच्छधवल बना देता है वह शुक्ल ध्यान है। शुक्ल ध्यान चार प्रकार का है : 1. पृथक्त्व वितर्क सविचार : इस ध्यान में ध्याता कभी द्रव्य का चिंतन करते-करते पर्याय का चिंतन करने लगता है और कभी पर्याय का चिंतन करते करते द्रव्य का चिंतन करने लगता है। इस ध्यान में कभी द्रव्य पर तो कभी पर्याय पर मनोयोग का संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य का एक ही रहता है। 2. एकत्व-वितर्क अविचार : इस ध्यान में वस्तु के एक रूप को ध्येय बनाया जाता है। इसमें साधारण या स्थूल विचार स्थिर हो जाते हैं किन्तु सूक्ष्म विचार रहते है। इसे निर्विचार ध्यान इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें एक ही वस्तु पर विचार स्थिर होता है। इस ध्यान के अंत में केवलज्ञान प्राप्त होता है। 3. सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती मन, वचन, और शरीर व्यापार का निरोध हो जाने एवं केवल श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया के शेष रहने पर ध्यान की यह अवस्था प्राप्त होती है। सर्वज्ञ वीतराग ही इस ध्यान के अधिकारी है, छद्मस्थ नही । योग निरोध की प्रक्रिया के समय जब केवल सूक्ष्म काय योग यानी मात्र श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया शेष रहती है उस उत्कृष्ट स्थिति का यह ध्यान हैं। 4. समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति: जब मन, वचन और काया की समस्त प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है और कोई भी सूक्ष्म क्रिया शेष नही रहती उस अवस्था को समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति शुल्क ध्यान कहते है। इस प्रकार शुक्ल ध्यान की प्रथम अवस्था क्रमशः आगे बढते हुए अंतिम अवस्था में साधक कायिक, वाचिक और मानसिक सभी प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध कर अन्त में सिद्धावस्था प्राप्त कर लेता है, जो कि धर्म साधना और योग साधना का अंतिम लक्ष्य है। 25

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