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उबुद्ध किये रहने का प्रयास करती है, जिससे साधक में सत्कर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न होती है। भले ही उसे तत्व चर्चा सुनने को मिले या न मिले, परंतु उसकी भावना इतनी निर्मल एवं पवित्र हो जाती है कि उसकी इच्छा मात्र से ही उसका कर्मक्षय होने लगता है। शुभ परिणामों के कारण समताभाव का विकास होता है, साथ ही चरित्र विकास की सारी क्रियाओं को आलस्य रहित होकर करता है, जिससे बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा अथवा आसक्ति क्षीण हो जाती है और वह धर्म क्रिया में संलग्न हो जाता है। इस प्रकार बलादृष्टि में साधक के अन्तर्मन में समताभाव का उदय होता है और आत्मशुद्धि बढ़ती जाती है।
4. दीप्रा दृष्टि:दीपा चौथी दृष्टि है। जिसकी उपमा आचार्य ने दीपक की ज्योति से दी है। जिस प्रकार दीपक का प्रकाश, तृणाग्नि, उपलाग्नि और कष्ठाग्नि की अपेक्षाकृत अधिक स्थिर होता है और जिसके सहारे पदार्थ को देखा जा सकता है, उसी प्रकार दीप्रा दृष्टि में होने वाला बोध उपर्युक्त दृष्टियों की अपेक्षा अधिक समय तक टिकता है। परंतु जिस प्रकार दीपक का प्रकाश हवा के झोंके से बुझ जाता है, उसी प्रकार मद मिथ्यावरण के कारण यह दर्शन भी नष्ट हो जाता है।
योग दृष्टि समुच्चय में इस दृष्टि को प्राणायाम एवं तत्व श्रवण-संयुक्त तथा सूक्ष्मबोध भाव से रहित माना गया है। कहा गया है - जिस प्रकार प्राणायाम में न केवल शरीर को ही सुदृढ़ बनाता है बल्कि आन्तरिक नाडियो के साथ-साथ मन के मैल को भी धोता है, ठीक उसी प्रकार इस दृष्टि में रेचक प्राणायाम की तरह बाह्य परिग्रहादि विषयों में ममत्व बुद्धि तो रहती है लेकिन कम होती है एवं पूरक प्राणायाम की भांति विवेक शक्ति की वृद्धि भी होती है और कुम्भक प्राणायाम की तरह ज्ञान जो भी साधक इस दृष्टि पर अपना अधिकार कर लेते है वे बिना किसी संदेह से धर्म पर श्रद्धा करने लगते है । उसकी श्रद्धा इतनी प्रबल हो जाती है कि वह धर्म के लिए प्राण का त्याग कर सकता है, लेकिन प्राण की रक्षा के लिए धर्म का त्याग नहीं करता।
अब तक की उपर्युक्त वर्णित दृष्टियाँ ओघदृष्टि है। इनमें यदि तत्त्वज्ञान हो भी जाता है तो वह स्पष्ट नहीं होता है। क्योंकि पूर्वसंचित कर्मों के कारण धार्मिक व्रत-नियमों का यथाविधि पालन करने से भी सम्यक् ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती। इसके बिना साधक को सद्गुरु के निकट श्रुतज्ञान सुनना, सत्संग के परिणाम एवं योग के द्वारा आत्म विकास की वृद्धि करना आवश्यक बताया गया है।
5. स्थिरा दृष्टि:स्थिरा दृष्टि को रत्नप्रभा से उपमित किया गया है। जिस प्रकार रत्न की प्रभा कभी मिटती नहीं, सहजतया प्रकाशमान रहती है, ठीक उसी प्रकार स्थिरा दृष्टि में प्राप्त बोधमय प्रकाश स्थिर रहता है। यहाँ साधक की दृष्टि सम्यक् हो जाती है, भ्रांतियां मिट जाती है, सूक्ष्मबोध अथवा भेदज्ञान हो जाता है, इन्द्रियाँ संयमित हो जाती हैं, धर्म-क्रियाओं में आने वाली बाधाओं का परिहार हो जाता है तथा परमात्म स्वरुप को पहचानने का प्रयास करने लगता है। आत्मा और पर-पदार्थों की भिन्नता का साधक अनुभव करने लगता है। अब तक पर में स्व की जो बुद्धि थी, वह अचानक आत्मोन्मुख हो जाती है। इस प्रकार दृष्टि में सम्यक्त्व आ जाने पर आस्था स्थिर हो जाती है, विश्वास सुदृढ़ हो जाता है। जिस प्रकार रत्न का प्रकाश कभी मिटता नहीं
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