Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ नाम की अग्नि होती है, उसके सहारे किसी वस्तु का स्पष्ट रुप से दर्शन नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार इस दृष्टि में साधक को ज्ञान तो प्राप्त होता है लेकिन उस अल्पज्ञान में तत्त्वबोध नहीं हो पाता, क्योंकि मिथ्यात्व अथवा अज्ञान इतना गाढ होता है कि वह ज्ञान और दर्शन पर आवरण डाल देता है। इसलिए साधक को तात्विक एवं पारमार्थिक ज्ञान का बोध नहीं हो पाता है। यह अल्पस्थितिक होती है। इस दृष्टि में दर्शन की मंदता, अहिंसादि यमों का पालन करने की इच्छा और देव-पूजादि धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति लगाव रहता है। साधक द्वारा माध्यस्थादि भावनाओं का चिंतन करने और मोक्ष की कारणभूत सामग्री को जुटाते रहने के कारण इसे योगबीज की संज्ञा से विभूषित किया गया है। इस दृष्टि में साधक योग के प्रथम अंग यम को प्राप्त कर लेता है। 2. तारादृष्टिः ___ यह द्वितीय दृष्टि है जिसे आचार्य ने गोबर या उपले के अग्निवेशों की उपमा से उपमित किया है। तिनकों की अग्नि की अपेक्षा उपलों की अग्नि प्रकाश की दृष्टि से कुछ विशिष्ट होती है, परंतु कोई खास अंतर नहीं होता है। इसमें साधक इतना सावधान हो जाता है कि वह सोचने लगता है कहीं मेरे द्वारा किये गये व्रत, पूजनादि, क्रिया कलापों से दूसरों को कष्ट तो नहीं है। और इस तरह साधक वैराग्य की तथा संसार की असारतासंबंधी योग-कथाओं को सुनने की इच्छा रखते हुए बड़े लोगों के प्रति बहुमान रखता है और उनका आदर सत्कार करता है। यदि पूर्व से ही साधक के अन्तर्मन में योगी, सन्यासी, साधु आदि के प्रति अनादर के संस्कार रहते है तो भी वह इस अवस्था में प्रेम और सद्व्यवहार करता है। संसार की असारता तथा मोक्ष के संबंध में चिंतन-मनन करने में समर्थ न होते हुए भी वीतराग के कथनों पर श्रद्धा का भाव रखता है। साधक इस अवस्था में सम्यक् ज्ञान के अभाव में सम्यक्-असम्यक् का अंतर नहीं जान पाता है, जिसके फलस्वरुप वह जो आत्मा का स्वभाव नहीं है, उसे ही आत्मा का स्वभाव मानता है। इस अज्ञान के कारण वह सर्वज्ञ के द्वारा कथित तत्वों पर श्रद्धा एवं विनीत भाव रखता है। तात्पर्य यह है कि तारा दृष्टि में साधक को अचानक अध्यात्म-उद्बोध की कुछ विशद् झलक दिखाई तो देती है, परंतु साधक का पूर्व का कोई संस्कार नहीं छू पाता है, इसलिए साधक के कार्य-कलापों में द्रव्यात्मकता से अधिक विकास नहीं हो पाता है। इस दृष्टि में योग का दूसरा अंग नियम साधना है । अर्थात् शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा परमात्म चिंतन जीवन में फलित होते हैं। 3. बलादृष्टि : इस तीसरी दृष्टि की उपमा काष्ठाग्नि से की गई है। जिस प्रकार लकड़े की आग का प्रकाश स्थिर होता है, अधिक समय तक टिकता है, शक्तिमान होता है ठीक उसी प्रकार बलादृष्टि में उत्पन्न बोध कुछ समय तक टिकता है, स्थिर रहता है, सशक्त होता है और संस्कार भी छोड़ता है। साथ ही साधक को तत्वज्ञान के प्रति अभिरुचि उत्पन्न होती है तथा योगसाधना में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होता। इस अवस्था में साधक की मनोस्थिरता अत्यंत सुदृढ़ हो जाती है और वास्तविक लक्ष्य की ओर साधक को tamamme 50134

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134