Book Title: Jain Dharm Darshan Part 05
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 41
________________ साधु पद में मन तदाकर परिणत हो तब वह साधु मैं हूँ। सिद्धपद में मन परिणमित हो तब वह सिद्ध मैं हूँ | जब उपयोग तदाकार परिणत होता है तब मैं देहधारी मनुष्य श्रावक साधु आदि हूँ यह भान खो जाता है। सामने के ध्येय-ध्यान करने योग्य के आकर में परिणत हो जाता है, फिर भी उस संस्कार को अधिक सुदृढ करने और वर्तमान लक्ष्य विचारांतरो से भूला न जाय इस हेतु से वह मैं हूँ ऐसे विचार जारी रखना। इस प्रकार नवपदजी के जिस किसी भी पद का ध्यान किया जा रहा हो तब उन सब स्थलों पर यह लक्ष्य ध्यान में रखकर प्रवृत्ति करनी चाहिए और आखिर में मन को उस पद में विराम दिला देना। इनके अतिरिक्त इन दोनों नमस्कार मंत्र से सम्बन्धित अनेक ऐसे मंत्रों या पदों का उल्लेख है जिनका ध्यान या जप करने से मनोव्याधियाँ शांत होती है, कष्ट दूर होते है तथा कर्मों का आश्रव रूक जाता है । अप्पा सो परमप्पा। आत्मा ही परमात्मा है। यह जीव भी परमात्मा हो सकता है। 'सोह' मैं वही सिद्ध स्वरुप परमात्मा हूँ। इन सब आगम पदों का विचार पूर्वक मनन करना, वैसे स्वरुप मे परिणत होने के लिए अन्य विचारों को दूर रखकर इसी विचार को मुख्य रखना। निरंतर उसी का श्रवण, उसी का मनन और उसी रूप में परिणत होना यह भी पदस्थ ध्यान है। देखिए, यह ध्यान रूपातीत ध्यान की ओर प्रयाण करता हुआ मालूम होता है तथापि यहाँ आगम के पद की प्रधानता रखकर यह ध्यान किया जाता है अतः इसका समावेश पदस्थ ध्यान में होता है। रुपस्थ ध्यान साक्षात् देहधारी रुप में विचरते हुए अरिहंत भगवान के स्वरुप का अवलंबन बनाकर ध्यान करना रुपस्थ ध्यान कहलाता है। 'अरिहंत' अरि+हंत ___ अर्थात् राग द्वेषादि जो शत्रु है उनका हंत (हनन, नाश) करने वाले, अरिहंत कहलाते है। इस ध्यान में साधक अपने मन को अहँ पर केन्द्रित करता है अर्थात् उनके गुणों एवं आदर्शों का चिन्तन करता है । साधक समवसरण की रचना का (अन्तस्थल में) चित्र खड़ा कर उसमें धर्मोपदेश देते हुए तीर्थंकर देव जो रागद्वेषादि विकारों से रहित, समस्त गुणों, प्रातिहार्यों एवं अतिशयों से युक्त का निर्मल चित्त से ध्यान करता है। ___ योग बल से अतिशय धारण करने वाले का ध्यान नहीं, बल्कि केवल ज्ञान (पूर्ण ज्ञान) रुपी सूर्य वाले एवं राग-द्वेष वगैरह महामोह के विकारों से रहित, समस्त लक्षणों से पूर्व ज्ञानी के स्वरुप का ध्यान करना। ध्यान करने से तात्पर्य बाहर से उनके शरीर का स्मरण में लाकर उनके साक्षात् दर्शन करते हों वैसे उनके सम्मुख दृष्टि को लगा देना, किन्तु अर्न्तदृष्टि से तो उनके आत्मिक गुणों पर लक्ष लगाकर मन को उसमें स्थिर कर देना, अथवा समवसरण की रचना का (अन्तस्थल में) चित्र खड़ा कर उसमें धर्मोपदेश देते हुए तीर्थंकर देव का ध्यान करना। इस ध्यान को रुपस्थ ध्यान कहते हैं। 29 M oraya

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