Book Title: Jain Darshan me Praman Mimansa
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Mannalal Surana Memorial Trust Kolkatta

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Page 12
________________ २] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा विकासशील प्राणी मनुष्य है । वह उपयुक्त सामग्री मिलने पर चैतन्य विकास इससे पहली दशाओ में भी की चरम सीमा केवल -ज्ञान तक पहुँच सकता है। उसे बुद्धि - परिष्कार के अनेक अवसर मिलते हैं । मनुष्य जाति में स्पष्ट अर्थ वोधक भाषा और लिपि-संकेत- ये दो ऐसी विशेषताएं हैं, जिनके द्वारा उसके विचारो का स्थिरीकरण और विनिमय होता है । स्थिरीकरण का परिणाम है साहित्य-वाड्मय और विनिमय का परिणाम है आलोचना । ज्यों-ज्यों मनुष्य की ज्ञान, विज्ञान की परम्परा आगे बढ़ती है, त्यों-त्यो साहित्य अनेक दिशागामी बनता चला जाता है । जैन-वाड्मय में साहित्य की शाखाएं चार हैं (१) चरणकरणानुयोग — आचार-मीमांसा—उपयोगितावाद या कर्तव्यबाद ( कर्तव्य-अकर्तव्य-विवेक ) यह आध्यात्मिक पद्धति है । (२) धर्मकथानुयोग - आत्म- उद्बोधनशिक्षा ( रूपक, दृष्टान्त और उपदेश ) (३) गणितानुयोग - गणित शिक्षा । ( ४ ) द्रव्यानुयोग • अस्तित्ववाद या वास्तविकतावाद । तर्क - मीमासा और वस्तु-स्वरूप - शास्त्र आदि का समावेश इसमें होता है । यह दार्शनिक पद्धति है । यह दस प्रकार का है (१) द्रव्यानुयोग - द्रव्य का विचार । जैसे—द्रव्य गुण -पर्यायवान् होता है। जीव में ज्ञान, गुण और सुख दुःख आदि पर्याय मिलते हैं, इसलिए वह द्रव्य है । (२) मातृकानुयोग — सत् का विचार । जैसे—– दुव्य उत्पाद, व्यय और प्रौन्य युक्त होने के कारण सत् होता है । जीव स्वरूप की दृष्टि से ध्रुव होते हुए भी पर्याय की दृष्टि से उत्पादव्ययधर्म वाला है, इसलिए वह सत् है ।

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