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न्याय और न्याय शास्त्र
मीमांसा की व्यवस्थित पद्धति अथवा प्रमाण की मीमांसा का नाम न्याय-तर्क विद्या है।
न्याय का शाब्दिक अर्थ है-प्राप्ति' और पारिभाषिक अर्थ है-"युक्ति के द्वारा पदार्थ-प्रमेय-वस्तु की परीक्षा करना २" एक वस्तु के बारे मे अनेक विरोधी विचार सामने आते हैं, तब उनके बलावल का निर्णय करने के लिए जो विचार किया जाता है, उसका नाम परीक्षा है । __'क' के बारे में इन्द्र का विचार सही है और चन्द्र का विचार गलत है, यह निर्णय देने वाले के पास एक पुष्ट आधार होना चाहिए। अन्यथा उसके निर्णय का कोई मूल्य नहीं हो सकता। 'इन्द्र' के विचार को सही मानने का
आधार यह हो सकता है कि उसकी युक्ति ( प्रमाण) में साध्य-साधन की स्थिति अनुकूल हो, दोनो (साध्य-साधन) में विरोध न हो। 'इन्द्र' की युक्ति के अनुसार 'क' एक अक्षर (साध्य ) है क्योकि उसके दो टुकड़े नहीं हो सकते।
'चन्द्र के मतानुसार 'ए' भी अक्षर है। क्योंकि वह वर्ण-माला का एक अंग है, इसलिए 'चन्द्र' का मत गलत है। कारण, इसमें साध्य-साधन की सगति नही है। 'ए' वर्णमाला का अंग है फिर भी अक्षर नहीं है। वह 'नई' के संयोग से बनता है, इसलिए संयोगज वर्ण है।
न्याय-पद्धति की शिक्षा देने वाला शास्त्र 'न्याय-शास्त्र' कहलाता है। इसके मुख्य अंग चार हैं:
१-तत्त्व की मीमांसा करने वाला-प्रमाता (आत्मा) २-मीमांसा का मानदण्ड-प्रमाण (यथार्थ ज्ञान) ३-जिसकी मीमासा की जाए-प्रमेय (पदार्थ)
४-मीमांसा का फल-प्रमिति (हेय-उपादेय मध्यस्थ-बुद्धि) न्याय शास्त्र की उपयोगिता
प्राणी मात्र में अनन्त चैतन्य होता है। यह सत्तागत समानता है। विकास की अपेक्षा उसमें तारतम्य मी अनन्त होता है। सव से अधिक