Book Title: Jai Jiya Kappo
Author(s): Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ यति-जीतकल्पे ॥कल्पयन्त्रकम् // | | | | | ..... દર વરશાદ 2022 રરરરર | . . अनयोर्यन्त्रकयोः शीलाङ्गरथवत् सर्वपदचारणिका करणीया / इयं स्थापना-' पढमस्स य कजस्सा 180 पढमेण पएण सेविअं जं तु 18 / बीएण 18 तइएण 18 तुरिएण 18 पंचम य 18 छट्टेण 18 सत्तम य 18 अट्ठम य 18 नवमेण 18 दसमेण / पढमे छक्के अभितरं तु 6, बीए छक्क अभितरं तु 6 तइए छक्के अभितरं तु 6 / पढमं भवे ठाणं 1 बीए (अं) भवे ठाणं 1 तइए (अं) भवे ठाणं 1 तुरिअं भवे ठाणं 1 तह पंचमं भवे ठाणं 1 छटुं भवे ठाणं 1 एतत्प्रथमं यन्त्रम् / 'बीयस्स य कजस्सा 432 पढमेण पएण सेविअं जं तु 18 / बी० 18 त० 18 तु. 18 पं० 18 छ०. 18 स... 18 अटू० 18 नव० 18 द०१८ एगोरसमेण 18 बा० 18 ते० 18 चउद० 18 पनर० 18 सोल० 18 सतर० 18 अढार० 18 इगुणो० 18 वी० 18 इग० 18 बा० 18 ते०१८ च०१८ / पढमे छक्क अभितरं तु 6, बीए 6 तइए 6 / पढमं भवे ठाणं 1 बोअं भवे ठाणं 1 तइयं भवे ठाणं 1 तुरिअं भवे ठाणं 1 तह पंचमं भवे ठाणं 1 छटुं भवे ठाणं 1 इदं द्वितीयं यन्त्रम् / 'सोऊण तस्स पडिसेवणं तु आलोअणं कमविहिं च / आगम पुरिसज्जायं परिआय बलं च खित्तं च // अवधारेउ सीसो गंतूण य सो तओ गुरुसगासे / तेसि निवेएइ तहा जहाणुपुव्वी तगं सव्वं // स गूढपदावधारकः शिष्यस्तस्याऽऽचार्यस्य प्रतिसेवकस्य प्रतिसेवामालोचनां च क्रमविधिं च मूलोत्तरगुणविषयं श्रुत्वा, आगमम्-आगमधरत्वे, पुरुषजातं-वाऽऽचार्यादि, पर्याय-व्रतवयोविषयं, बलं च-वपुःसामर्थ्य, क्षेत्रं च कर्कश-साधारणादिरूपम् , अवधार्य, ततो गत्वा गुरूणां-प्रायश्चित्तदातृणां सकाशे यथाऽनुपूर्व्या श्रुतं तत्तथा सर्व तेषां निवेदयति / ततः 'सो ववहारविहिन्नू अणुमजिअ तं सुओवएसेणं / सिस्सस्स देइ आणं तस्स इमं देहि पच्छित्तं' / स-प्रोयश्चित्तदाता आगमादिव्यवहारविधिज्ञस्तत्र स्वयं गन्तुमक्षमः स्खशिष्यं प्रेषयति, तदभावे आगतशिष्यस्यैवाऽऽज्ञां ददाति, अनुमृज्य-तं गूढपदालोचितमतीचारं श्रुतोपदेशेन विशोभ्य, यथा तस्याऽऽचार्यस्येदं प्रायश्चित्तं दद्या इति गूढपदैरेव कथयति / तानि चैतानि 'पढमस्स य कज्जस्सा दसविहमालोअणं निसामित्ता / नक्खत्ते भे पीडा सुक्के मासे तवं कुणह / / चाउम्मासं तवं कुणह, छम्मासं तवं कुणह, सुक्के इति सञ्चारितान्त्यपदा पुनरेषेव गाथा द्विः पठनीया / आसामर्थः-प्रथमस्य कार्यस्य-दर्पिकासेवनाऽऽख्यस्य दशविधामालोचनां दर्पाकल्पादि-दशपदात्मिकां निशम्य नक्षत्रे भे-भवतां पीडा-पीडकत्वेनोपचाराद्विराधना / कोऽर्थः 1 चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रतारकभेदपञ्चविधज्योतिश्चक्रमध्ये नक्षत्रभेदश्चतुर्थः / अतोऽनेन चतुर्थव्रतगोचरा विराधना सूच्यत इति

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182