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प्रथम अधिकार। सदा प्रसन्न रहें ॥७॥ जो मुनिराज कामदेवरूपी मदोन्मत्त हाथीको जीतनेवाले हैं, जो क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि अन्तरङ्ग शत्रुओंका नाश करनेवाले हैं और जो संसाररूपी महासागरके डरसे सदा भयभीत रहते हैं ऐसे मुनिराजके चरणकमलोंको मैं सदा नमस्कार करता हूं ॥८॥जो सज्जन दुष्ट पुरुषोंके बचन रूपी सोसे कभी विकारको प्राप्त नहीं होते हैं
और जो सदा दूसरोंके हितकी ही इच्छा करते रहते हैं ऐसे सज्जनोंको भी मैं नमस्कार करता हूं ॥२॥जो दूसरोंके कार्योंमें सदा विघ्न करनेवाले हैं, जिनका हृदय सदा कुटिल रहता है
और जो सर्पके समान सदा निंदनीय हैं ऐसे दुष्ट पुरुषोंको मैं उनके डरसे नमस्कार करता हूं॥१०॥पहिलेके महा ऋषियोंके मुंहसे सुनकर और शेष सज्जनोंसे पूछकर मैं श्रीगौतमस्वामीका अत्यंत सुख उत्पन्न करनेवाला चरित्र कहता हूं ॥ ११ ॥ न्याय, सिद्धांत, काव्य, छंद, अलंकार, उपमा, व्याकरण, पुराण आदि शास्त्रोंको मैं सर्वथा नहीं जानता, तथा सद्धर्मामृतसंदोहप्रीणितसज्जना मम । प्रसन्ना यतयः संतु परोपकृतितत्पराः ॥७॥ कामकरींद्रजेनुंश्च मोहक्रोधादिनाशकान् । यतिनाथान् सदा वंदे भवाब्धिभयभीतिकान् ॥ ८ ॥ विकृतिं यांति नो ये हि दुर्जनबचनाहिभिः । सज्जनांस्तान्नहं नौमि परेषां हितकांक्षिणः। दुर्ननान् भयतो वंदे परप्रत्यूहकारिणः । कुटिलहृदयान् संपीलोकविनिदितान्निव ॥ १० ॥ पूर्वर्षिवदनाच्छ्रत्वा शेषानाएच्छय सज्जनान् । . गौतमस्वामिनो वक्ष्ये चरितं सुसुखाकरम् ॥११॥ न्यायसिद्धांतसत्काव्यछंदोऽलंकाररूपकम् । व्याकरणपुराणादिशास्त्रौषं च न वेदम्यहम्