Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ अपराजिता । ११ राजमहल में एक राजकुमारियां ही ऐसी थीं, जो उस समय हँस हँस कर के कहती थीं कि — देखो, वर महाराज आज ससुराल में गाना गा रहे हैं ! राजकुमारियोंका आनन्द और उत्साह दो ही दिनमें थक गया । वसन्तके साथ एक ही प्रकार के आमोद-प्रमोदसे अब उनका जी ऊब उठा । अब उन्होंने नूतन अमोदका अनुसंधान करनेके लिए कर्नाटक कलिंगादि देशों के राजाओं की ओर अपने चित्तकी वृत्तिको बदला । (५) अब राजकुमारियोंके न आनेसे वसन्त अपने जीवनके चारों ओर कुछ प्रसन्नताका अनुभव करने लगा। उसने देखा कि राजकुमारियां तो अब नहीं आती हैं; परंतु उसके भोजनका पात्र दोनों वक्त नियमित रूपसे ताखमें आकर उपस्थित हो जाता है । जो उसके लिए आहार लाती है, उसके हाथ सुकुमार तथा कोमल हैं—वह कोई करुणामयी रमणी है । वह अब एक कटोरा भर सत्तू लाती है और गुलाबजल तथा दूधमें साने हुए उस सत्तूके नीचे नाना प्रकार के व्यंजन छुपे रहते हैं । कटोरा एक सुगन्धित फूलोंकी मालासे लिपटा हुआ रहता है । इससे वसन्तने समझा कि इस पाषाणहृदय राजमहलके भीतर भी एक आध कोमल हृदय व्यक्ति है । उसके हृदय में प्रश्न उठने लगा कि यह करुणामयी कौन है ? क्रमक्रमसे वसन्तका हृदय इस करुणामयी सेविकाकी ओर आकर्षित होने लगा । वसन्त भोजन आनेके द्वारकी ओर टक लगाये रहता था कि कब उस करुणामयीके कोमल हाथ भोजनपात्रको रखनेके लिए आते हैं । देखते देखते वसन्तको उन हाथोंके दर्शन करनेका समय एक प्रकार से निश्चित हो गया । जिस समय ताखके मुखपर दीवालकी छाया कुछ फीकी पड़ती थी, घरका अन्धकार कुछ कम होता था और हवा आनेके छिद्रोंसे जब सूर्यकी थोड़ीसी किरणें भीतर आती थीं, उसी समय उस करुणामूर्तिका आविर्भाव होता था । उस समय बाहरकी हवाकी सरसराहट, पत्तोंकी खरखराहट और आने जानेवालोंके पैरोंकी आहट वसन्तको क्षणक्षणमें आतुर करती थी । उस समय वह अपने सारे मनोयोगका केन्द्र कानों और नेत्रों को बना कर बैठा रहता था । इसके पश्चात् जब वह रमणी अन्नपूर्णा के समान' भोजनके कटोरेको ताखमें रखकर मृदु और मधुर कंठसे पुकारती थी - " वसन्त !” उस समय वसन्त प्रफुल्लित होकर एक ही छलांग में

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112