Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 57
________________ फूलोका गुच्छा। सरलाका यह बालिकासुलभ प्रश्न सुनकर नायकसिंहकी आँखोंमें प्रेमके आँसू भर आये । वे बोले, “करूँगा कुछ नहीं । संन्यास ले लूंगा।" सत्यवती-"नहीं। तुम संसारमें रहो । यदि कोई तुमपर प्यार करता हो?" नायकसिंहने अभिमानके साथ कहा-" तो मैं तुम्हारी सलाह माननेको तैयार हूं?" (९) धीरे धीरे बादल फटने लगे और जहां तहां हजारों लाखों तारे चमकने लगे। पर्वतकी एक ओर, बिलकुल निर्जन वनमें एक पुरानी टूटीफूटी कुटीर है । भिक्षु इसी कुटीरमें पत्तोंकी शय्या पर सो रहा है। वह अपने बाणविद्ध पैरको एक पत्थरके ऊपर रक्खे हुए है और बायीं भुजाको तकिया बनाये हुए निद्रा ले रहा है । पैरसे एक एक बूंद रक्त टपककर पर्णशय्याको रँग रहा है। .. अभी सवेरा होने में कुछ विलम्ब है । बहुत ढूंढ खोज करनेके बाद मन्द्राने कुटीरके द्वारपर आकर देखा कि भिक्षु नींदमें अचेत पड़ा है। मन्द्रा पैरोंके पास जाकर बैठ गई। उसने देखा कि तीक्ष्ण बाण मांसके • भीतरतक चला गया है । इससे उसे बड़ा कष्ट हुआ । उसने अपने अंचलसे • एक प्रकारके वृक्षकी पत्ती निकालकर चुटकीसे मसली और उसे घावपर लगा दिया। इसके बाद वह अपने सुन्दर केशको तलवारकी धारसे काट काटकर उसपर लगाने लगी और अन्तमें उसने अपने रेशमी ओढ़नेको फाड़कर तलुवेसे लेकर घुटने तकके भागको खूब कसकर बाँध दिया। आज भिक्षुके चरणतलोंका स्पर्श करके मन्द्राने आपको परम भाग्यवती समझा । इस समय उसके प्रेमका प्रवाह अरोक था। अपने संकल्पित स्वामीके चरणोंका चुम्बन करके वह आँसू बहाने लगी। इसी समय भिक्षुने आँखें खोलकर पूछा, “तुम कौन हो ?" मन्द्रा-देव, मैं आपके चरणोंकी दासी हूं। भिक्षु-(विस्मित होकर ) क्या मैं स्वप्न देख रहा हूं? मन्द्रा-नाथ, यह स्वप्न नहीं, सत्य है। तुम मेरे जीवनके देवता हो। तुम्हारे चरणको विद्ध करके मैं आत्मबलि दे चुकी हूं। मन्द्राका यह सबसे पहला प्यार या अनुराग था। इस समय उसके नेत्र पृथ्वीके प्रत्येक पदार्थको प्रेममय और करुणापूर्ण देख रहे थे।

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