Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 59
________________ फूलोका गुच्छा | ग्रहणकी अभिलाषासे मैंने आज लगभग एक वर्षसे मिथिलाका सिंहासन छोड़ दिया है । भिक्षुवेषमें अपनेको छुपाये हुए शरणसिंह जंगल और पहाड़ोंमें रहकर और नगरों में घूमकर जिस रत्नको ढूंढ़ रहा था, वह आज इसे मिल गया । मन्द्राका हृदय उछलने लगा । इस समय उसका प्रत्येक रक्तबिन्दु आनन्दसे नृत्य कर रहा था । उसने अपने प्रेमपूर्ण नेत्रोंको शरणकी ओर फिराकर हँसीमें कहा, " मैं तो पहले ही समझ गई थी कि तुम कोई ढोंगी तपस्वी हो ! " शरणसिंह — और इसी लिए तुमने बाणविद्ध करके स्वयंवर करनेकी यह अद्भुत युक्ति सोच रक्खी थी ! मन्द्राको इसका कोई उत्तर न सूझा । लज्जित होकर वह वहांसे तत्काल ही भाग गई । ५४ वीर- परीक्षा | ( १ ) दक्षिण में भीमा और नीरा नदीके संगमपर महेन्द्रविहार नामका प्रसिद्ध नगर था । इस नगर में द्रोणायण नामक राजाकी राजधानी थी । द्रोणायणकी प्रबल राजवृद्धिलालसा दूसरे राजाओंके हृदयमें भय और अश्रद्धाका उदय कर रही थी । उस समय गजेन्द्रगढ़ का राजा महशूर ही ऐसा था, जो द्रोणायणकी लालसाको अंकुशमें रख सका था; परन्तु द्रोणायणके सौभाग्यसे एकाएक उसकी मृत्यु हो गई और उसका पुत्र पुष्पहास सिंहासन पर बैठा । पुष्पहास अभी बालक था, इसलिए उसका प्रधान मन्त्री झलकण्ठ राज्यका कामकाज देखने लगा । गजेन्द्रगढ़ के राजपरिवारका अभीतक अशौच भी न उतरा था कि द्रोणायणने मौका पाकर मलशूरके सुरक्षित राज्यपर चढ़ाई कर दी, मलशूरकी मृत्युसे वह अपने विजयमार्गको निष्कण्टक समझने लगा था । इस युद्धमें उसका पुत्र भद्रमुख और पुत्री भद्रसामा भी उपस्थित थी । जिस समय झलकण्ठ समरभूमिमें बाणवर्षण कर रहा था, उस समय उसने देखा कि सामने से भसामा अपनी भ्रू-कमान पर पुष्पधन्वाके तीखे तीखे बाण चढ़ाकर छोड़ रही है और वे उसके हृदयके आरपार जा रहे हैं ।

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