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विचित्र स्वयंवर। भिक्षु उठकर बैठ गया और बोला-'मन्द्रा, मैं एक साधारण शरीरधारी हूं, देव नहीं । मैं मनुष्य हूं; परन्तु संन्यासी हो गया हूं, इसलिए संसार मेरे लिए निःसार और शून्य है। मेरा मार्ग दूसरा है और तुम्हारा दूसरा । तुम संसारमार्गमें ही रहो और अपने सुयशसे जगतको उज्ज्वल करो । कभी अवसर आवेगा, तो मैं तुम्हारे यशको देख जाऊंगा । मन्द्रा, तुम्हारे हृदयमें जिस असीम करुणाका उद्गम हुआ है, मैं चाहता हूं कि वह अङ्गराजमें शतसहस्र धाराओंसे बहे और सबके लिए शान्तिप्रद हो।" ___ मन्द्राने हाथ जोड़कर कहा, "जीवननाथ, आप संसारको छोड़कर न जावें। याद कीजिए, आप प्रतिज्ञाबद्ध हो चुके हैं।"
भिक्षु-कौनसी प्रतिज्ञा ? मुझे तो याद नहीं आती। 'मन्द्र-देव, उस दिन आपने स्वीकार किया था कि मैं आत्मबलि देकर अङ्गराज्यमें करुणाका संचार करूंगा । इसलिए अब उसी सत्यपाशमें बँधे रहो। भिक्षुमहाशय, संसारमें ही रहो, इसे मत छोड़ो। आपको देखकर मैं सीखूगी और अपने हृदयमन्दिरमें विराजमान करके आपकी ही पूजा करूंगी। मुझे अब अपने धर्मकी दीक्षा दे दो । भिक्षुराज, जान पड़ता है कि बौद्ध धर्म बहुत ही अच्छा 'धर्म है।
भिक्षु-कुमारी, क्या तुम मुझे संसारगृहमें रखनेके लिए तैयार हो ?
मन्दा—सब तरहसे । भिक्षुमहोदय, अब मेरे हृदयके टुकड़े करके मत जाओ । मैं अपने प्राणोंको तुमपर न्योछावर कर चुकी हूं। ___ उस भुवनमोहन मुखसे विषादमयी वाणी सुनकर मिक्षु उठके खड़ा हो गया। अपने पैरों में पड़ी हुई उस राजकुमारीको वह अपनी शक्तिशालिनी भुजाओंसे उठाकर कुटीरके बाहर ले आया। __पूर्वाकाशसे उषाकी किरणें उन दोनोंके मुखपर पड़कर एक अपूर्व चित्रकी रचना करने लगीं। ___ बौद्ध भिक्षुने मन्द्राके निष्कलंक और पवित्र मुखपर अपने दोनों नेत्र स्थापित करके कहा, "प्रेममयी, तुम इतनी व्याकुल क्यों हो रही हो ? जब महादेव जैसे तपस्वी भी इस मायाके मानकी रक्षा करनेमें संसारी हो गये हैं, तब मैं तो किस खेतकी मूली हूं ? कुमारी, मैं हिन्दू क्षत्रिय हूं। तंत्रका कलंक और जीवहत्या दूर करनेके लिए बौद्ध धर्मकी सृष्टि हुई है। पर बौद्ध हिन्दू धर्मसे पृथक् नहीं है । अतएव मैं बौद्ध होकर भी हिन्दू हूं'। प्रिये, तुम्हारे पाणि