Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 79
________________ ७४. फूलोंका गुच्छा। रमणी-यह डॉकूका घर है । जिस शिकारीने तुम्हें रास्ता बतलाया है वह डाँकू है और यह उसीका घर है। कमलाप्रसाद-(घबड़ाकर ) तो अब मैं क्या उपाय करूँ ? रमणी-उपाय तो कुछ भी नहीं दिखता-वह तुम्हारे पीछे पीछे आता होगाः और आना ही चाहता है । उसने इतना कहा ही था कि बाहरसे किसीके आनेकी आहट सुन पड़ी। स्त्रीने घबड़ाहटके साथ पथिकसे कहा-"उठो, उठो, देरी न करो"-और उसे जल्दीसे. एक अँधेरी जगहमें छिपा दिया। शिकारीने घरमें पैर रखते ही स्त्रीसे पूछा-“शिकार कहाँ है ?" स्त्रीने कोई उत्तर न दिया-वह केवल विस्मयजनक दृष्टि से उसके मुखकी ओर देखने लगी। शिकारीने गर्ज कर कहा- "शिकार कहाँ गई ?" रमणी जैसे कुछ भी न जानती हो ऐसा भाव बताकर बोली-“शिकार!" "हां, हां, शिकार ।" रमणी-(विस्मयसे) कौनसी शिकार ? शिकारी-(अधीर होकर ) मैंने बराबर उसे इसी रास्ते आते देखा हैरास्ते में भी नहीं, घर भी नहीं, तो क्या वह उड़ गया ? रमणी-क्या जाने ? शिकारी क्रोधसे पागल होकर बोला "मालूम होता है कि यह तेरी ही करामात है ! अभीतक तेरा यह रोग गया नहीं ! बोल कहाँ छिपा दिया है ?" ऐसा कहके उसने जोरसे एक लात मारी । स्त्री जमीनपर गिर पड़ी-तो भी उसने कुछ न कहा। स्त्रीको चुप देखकर उसका क्रोध बढ़ने लगा । पीटते पीटते उसने उसे अध-- मरी कर डाला तो भी उसने मुँहसे कुछ भी न कहा, पड़ी पड़ी सिर्फ मार खाती रही। __ अब कमलाप्रसादसे न रहा गया। उसने सोचा कि अब छिपे रहनेसे काम नहीं चलता-मेरे पीछे यह बेचारी नाहक सताई जा रही है! वह झटसे बाहर आकर बोला- "इस बेचारीको तुम क्यों नाहक मारते हो ? लो, मैं यह खड़ा हूँ।" ___ अब स्त्रीको छोड़कर वह शेरकी तरह कमलाप्रसादपर टूट पड़ा। कमलाप्रसाद उस समय भी इतना थका हुआ था कि वह अच्छीतरह खड़ा भी न हो

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