Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 89
________________ फूलका गुच्छा । दृष्टिसे देखने लगे हैं | इसके सिवा आप लोगोंके प्रति भी ब्राह्मणोंका विद्वेष लुप्त हो गया हैं। अब हमें जीते हुए देशोंको सुरक्षित रखनेकी ओर ही विशेष ध्यान देनेकी आवश्यकता है ।" " महाराज - "पंजाब और गुजरात आदि प्रदेशोंमें जबतक क्षत्रप राजा नहीं जीत लिये गये थे तबतक मैं अपने राज्यको अखंड नहीं समझ सकता था । " प्रियवर्मा - (हँसकर) " जिस कार्यका भार युवराज चन्द्रगुप्तने स्वयं ग्रहण किया है उसमें सिद्धि होनी ही चाहिए ।" महाराजन - " जब तुम्हारा पुत्र विश्वकर्मा उसका सहकारी और सहचर है जीतकी आशा करना ठीक ही है । " प्रियवर्मा - “महाराज, आपके अनुग्रहकी सीमा नहीं है; मेरे बड़े पुत्र नर-वर्माको मालवेका शासक बनाकर आपने मेरे वंशके गौरवको आशासे भी अधिक बढ़ा दिया है । यदि विश्वकर्मा युवराजका सहचर होकर रहेगा तो इसमें सन्देहः नहीं कि इससे उसकी भलाई होगी; किन्तु राज्य के कल्याणके लिए मैं इस विष-यमें एक प्रस्ताव करना चाहता हूँ ।" महाराज ध्यानपूर्वक सुनने लगे और प्रियवर्मा कहने लगे - " मुझे संवाद - मिला है कि हूण नामक जाति बहुत बलाढ्य हो रही है और एसा मालूम होता है कि वह बहुत जल्द गान्धार प्रदेशपर अधिकार जमा लेगी । यह कहनेकी तो कुछ आवश्यकता ही नहीं है कि जबतक भारतकी पश्चिम सीमा सुरक्षित न होगी. तबतक भारतका कल्याण नहीं | तब इस समय हूण लोगोंकी गतिविधिका निरीक्षण करनेके लिए किसी योग्य पुरुषके भेजनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है। यह आप जानते ही हैं कि विश्ववर्मा रोमकादि अनेक पाश्चात्य भाषाओंको जानता है । अतएव मेरी समझ में उसे ही गान्धार प्रदेशकी ओर भेजना चाहिए ।" यद्यपि महाराज अपने मन्त्रीकी स्वार्थशून्यता और हितैषणासे अच्छी तरह परिचित थे; तो भी इस प्रस्तावको सुनकर वे स्तम्भित हो रहे । अपने प्राणोंसे प्यारे पुत्रको देशहित या राजहित के लिए संकटके स्थल में भेज देना साधारण बात नहीं । महाराजने कुछ चिन्तित होकर कहा – “सचिव श्रेष्ठ, मैं इस विषय में कुछ विचार कर लूँ-पीछे उत्तर दूँगा । " इसी समय सूचना मिली कि पंजाब से युवराजका दूत आया है । दूत जिन सब कागजपत्रोंको लाया था उन्हें पढ़कर राजा और मन्त्रीको ज्ञात हुआ कि युवराजकी विजयिनी सेना बिना बाधा विघ्नके पश्चिम की ओर जा रही है । इ

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