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चपला।
वे प्रसिद्ध उपदेशकके नामसे विख्यात हो चुके थे। एक दिन बुद्धघोष युवराज चन्द्रगुप्तको भगवान् बुद्धदेवके माहात्म्यका अनुरागी बनानेके लिए उनके शिविरमें आकर उपस्थित हुए । युवराज उनके साथ सारे दिन धर्मविषयक वार्तालाप करनेके पश्चात् सन्ध्याके कुछ पहले चपलाका संवाद लेने गये; परन्तु चपला इसके पहले ही मेलिनाके साथ बुद्धघोषके दर्शन करनेके लिए चली गई थी। चन्द्रगुप्तने देखा कि चपलाका छोटासा कमरा सूना पड़ा है और उसमें उसके बनाये हुए कई चित्र इधर उधर पड़े हैं । राजकुमारको उन्हें देखनेका कुतुहूल उत्पन्न हुआ। वे कमरेके भीतर चले गये । एक ओर एक चौकीपर वह नया बनवाया हुआ सुवर्ण-पदक रक्खा था । पदक बिलकुल नये ढंगका था। यदि कुछ बड़ा न होता तो उसे इस समयका ‘लाकेट' कह सकते थे। उसके ऊपर एक सुन्दर पक्षीका चित्र जड़ा हुआ था । युवराजने ध्यानपूर्वक चित्र देखते देखते पदकका ढक्कन खोल डाला और देखा कि उसके भीतर भी एक छोटासा चित्र है ! उसे देखते ही वे चौंक पड़े और धीरेसे उसे बन्द करके जहाँका तहाँ रखके जल्दीसे कमरेके बाहर हो गये। कुछ दूर जानेपर उन्होंने देखा कि मेलिना और चपला आ रही हैं । युवराजने पूछा “तुम कहाँ गई थीं ?" चपला बोली, “ मैंने सोचा था कि कोई एक विचित्र प्रकारका जन्तु होगा; परन्तु देखा तो दो हाथों और दो पैरोंका मनुष्य ही निकला! हम दोनों बुद्धघोषको देख आईं।" चन्द्रगुप्तने हँसकर कहा-“चपला, बुद्धघोष बड़ा भारी विद्वान् और महात्मा है।" तब चपलाने गंभीर होकर बुद्धघोषको परोक्ष प्रणाम कर लिया।
चन्द्रगुप्तने आज देखा कि चपलाकी चञ्चलताके भीतर स्थिरता और गंभीरता भी है । उन्होंने बालिकाकी ओर स्नेह दृष्टि डालकर कहा-"चपला तुम
और कितने दिन यहाँ रह सकोगी?" चपलाने गंभीर होकर कहा “मुझे अब यहाँ अच्छा नहीं लगता, मैं कुसुमपुर देखना चाहती हूँ और श्रीमती ध्रुवदेवीके देखनेकी तो मुझे बहुत ही उत्कण्ठा हो रही है ।" युवराज बोले-"तुमने तो उन्हें कभी देखा नहीं है, फिर यह कैसे निश्चय कर लिया कि वे तुमपर प्रेम करेंगी ?" चपलाने अपनी बड़ी बड़ी आँखें युवराजकी ओर करके कहा“निश्चय ! वे मुझपर खूब प्यार करेंगी।" यद्यपि युवराज इस बातको जानते थे; परन्तु बालिकाका यह प्रगाढ़ विश्वास देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। .