Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 101
________________ फूलोका गुच्छा। “ऐसे सुन्दर नेत्र जिसने नष्ट किये हैं, वह क्या अपने नेत्र अक्षत रखके जीवित रह सकता है ?" यह कहते कहते महाराजका कण्ठ क्रोधसे काँपने लगा। कुणालने मृदु हँसीसे हँसकर कहा-“मेरे नेत्रोंको निकलाकर यदि माताका मन प्रसन्न हुआ है, तो उनकी उस प्रसन्नताके बलसे ही मैं फिर नेत्र पा लूँगा।" उसी समय कुणालको नेत्र प्राप्त हो गये ! इसके बाद युवराज कुणालका खूब धूमधामसे राज्याभिषेक किया गया । राज्यदण्ड धारण करके वे पृथ्वीका शासन करने लगे। शिष्यकी परीक्षा । एक छोटासा परन्तु सुन्दर उपवन है । वसन्तऋतुने नवीन पुष्पपल्लवरूप दिव्य वस्त्राभूषणोंकी मेट देकर उसे और भी मनोहर बना दिया है। प्रातःकालकी मधुर मन्द सुगंधित वायु बह रही है । आम्रवृक्षोंकी डालियोंपर बैठी हुई कोयलें अपनी मीठी सुरीली आवाजसे शान्तिपाठ पढ़ रही हैं। अन्यान्य पक्षीगण आनन्द कलरव करते हुए एक डालीसे दूसरी और दूसरीसे तीसरी डालीपर स्वतंत्र क्रीडा कर रहे हैं । ___ एक जम्बूवृक्षके नीचे भगवान् बुद्धदेव ध्यानारूढ हो रहे हैं। उनकी शान्त और निर्विकार मुद्रा देखकर परम नास्तिक पुरुषोंका मस्तक भी भक्तिभावसे नम्र हो जाता है । वनके हिंस्र पशु भी अपनी क्रूरताको भूलकर उनके पवित्र शरीरका स्पर्श करते हुए चले जाते हैं। जिसके क्रोधादि विकार क्षीण हो जाते हैं. उसके प्रभावसे दुष्टसे भी दुष्ट प्राणियोंका सुष्ठु हो जाना कोई अचरजकी बात नहीं। ___ एक हरिणका बच्चा पद्मासनस्थ बुद्धिदेवकी जंघापर सिर रक्खे हुए आनन्दानुभव कर रहा है। एकाएक उसने अपना मस्तक ऊँचा किया और नथुने फुलाए। सूखे हुए पत्तोंपरसे आनेवाले मनुष्योंके पैरोंकी अस्पष्ट आहट सुनाई पड़ने लगी। थोड़ी देरमें वृक्षोंकी ओटमेंसे मनुष्योंकी एक टोली बाहर आई।

Loading...

Page Navigation
1 ... 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112