Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 100
________________ कुणाल। ९५ युवराज और युवराज्ञीका देश-निकाला हो गया। दोनों वीणा बजाते हुए, आनन्दामृतपूर्ण करुण गीत गाते हुए जहाँ तहाँ फिरने लगे और अपने दिन "बिताने लगे। इस तरह कई वर्ष बीत गये। एक दिन एक भिखारी और भिखारिनीने वीणा बजाते हुए पाटलीपुत्र नगरमें प्रवेश किया। राजमहलके द्वारपर खड़े हुए पहरेदारने भिखारीको भीतर जाते हुए धमकाया-" तू राजमहलके भीतर जाना चाहता है.! निकल यहाँसे!' भिखारी और भिखारिनीको हस्तिशालामें जाकर आश्रय लेना पड़ा । रात हो गई थी, और स्थान खोजने के लिए समय नहीं था, इस लिए लाचार होकर बेचारोंको वहीं टिक जाना पड़ा। राजधानी दीपमालासे सुसज्जित हो रही थी। घर घरमें आनन्दस्रोत बह रहे थे। उद्यानोंमें रात्रिविकासी फूल फूल रहे थे। देखते देखते दीप वुझ गये । कोलाहल बन्द हो गया । सारी नगरीमें सन्नाटा छा गया। उस निस्तब्ध नगरीके मस्तकपर शुभ्र चन्द्र उदित हो गया था। हरे हरे सघन कुञ्जोंके बीच बीच में चाँदनीसे धोई हुई धवल सौधावली चुपचाप खड़ी थी। निद्राका सर्वत्र साम्राज्य हो रहा था। हस्तिशालाके पहरेदारकी आँखें झपने लगीं; किन्तु सोजानेमें तो उसकी कुशल नहीं है। उसने अपनी निद्रासे डरकर भिखारीसे कहा-'भाई, इस समय तुम अपनी वीणा तो बजाकर सुनाओ!" भिखारीकी वीणाका सुर रात्रिकी निस्तब्धताको भेद कर दूर दूर तक जाने 'लगा-अन्धकारमें करुण वायुके साथ साथ क्रन्दन करता हुआ फिरने लगा। महाराज सुखशय्यापर सो रहे थे। वीणाके उस करुणस्वरसे वे जाग उठे। उन्होंने मन-ही-मन कहा--यह तो चिरपरिचित स्वर है ! यह वीणा कौन बजा रहा है! इसके बाद उनसे रहा नहीं गया। वे तत्काल ही उठ बैठे और पाग'लके समान दौड़कर बाहर आ गये! पुत्र पिताके हृदयसे लग गया । महाराज अशोकको चिरविरहित पुत्रके सुखस्पर्शसे रोमाञ्च हो आया।

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