Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 99
________________ फूलोंका गुच्छा। पत्र महाराज अशोककी तरफसे लिखा गया । उसपर उनकी मुहर भी लगा दी गई ! (३) कुञ्जरकर्णने पत्र पढ़ा और कुणालको भी उसका भयंकर संवाद सुनाया। कुणालने कहा-“ पूज्य पिताकी आज्ञा-राजाकी आज्ञा मानना पुत्रका धर्म है । मैं आज्ञा पालन करनेके लिए तैयार हूँ, परन्तु एक प्रार्थना करता हूँ कि आज्ञा पालन होनेके पहले इसका संवाद देवीके कानोंतक किसी तरह न पहुँचने पावे।" ___उस समय देवी काञ्चन युवराजके साथ ही तक्षशिलाके राजप्रासादमें उप'स्थित थी। ऐसा ही हुआ। देवीको मालूम न होने पाया और कुणालके आँसू भरे जेत्रोंकी पुतलियाँ निकाल ली गई ! देवी काञ्चन कुछ कहनेके लिए कुणालके कमरेमें आ रही थी। जीनेपर चढ़ते समय उसका पैर फिसल पड़ा, सोनेका नूपुर गिर गया, चंचल हवाके झोकेसे गुलाबी अञ्चल उड़ पड़ा और शिथिल कबरीमेंसे फूलोंकी माला खिसक गई ! "स्वामिन् स्वामिन् , देखो देखो-" इसके उत्तरमें कुमारने ज्यों ही देवीकी ओर मुँह करके कहा-"क्या है देवी!"-त्यों ही मालूम हुआ कि देवी मूर्छित होकर गिर पड़ी है! कुणालने कुंजरकर्णसे कहला भेजा कि “देवीकी मूर्छा दूर होने पर महाराजकी दूसरी आज्ञाका पालन करूँगा।" कुंजरकर्ण कुणालको देखनेके लिए आये थे । यह करुण दृश्य देखकर वे आँखोंमें आँसू भरे हुए ही वहाँसे लौट गये । सारा दिन और सारी रात इसी तरह व्यतीत हुई । सवेरे देवीकी मूर्छा दूर हो गई। ___-"स्वामिन् , चलो अपन इसी समय चले जावें । महाराजकी दूसरी आज्ञाका पालन करने में अब विलम्ब न करना चाहिए।" "-देवी, तुम मेरे पिताके घर चली जाओ।" "-स्वामिन् , मैंने यह आपका हाथ पकड़ लिया है । यदि आप इतने 'निष्ठुर हो सकें-मेरा हाथ छुड़ाकर जा सकें तो जाइए, मैं नहीं रोकूँगी।"

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