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शिष्यकी परीक्षा।
इस टोलीका मुखिया एक तरुण पुरुष था, जिसका मुख उज्ज्वल तथा तेजस्वी था और जिसके शरीरपर मूल्यवान् वस्त्राभूषण चमक रहे थे। ___ इस युवाने अपने साथियोंको दूर खड़े रहनेका संकेत किया और आप अकेला वुद्धदेवके समीप आया । उस भव्य और शान्त मूर्तिके समीप पहुँचते ही उसने साष्टांग नमस्कार किया और हाथ जोड़कर वह एक ओर खड़ा हो गया ।
इस समय बुद्धदेव यद्यपि अपनी पूर्वस्थितिमें ही स्थित थे, परन्तु उनकी दृष्टि उस युवाकी तरफ थी।
बहुत समय तक प्रतीक्षा करके युवक बोला--" भगवन् ! मेरा प्रणाम स्वीकार हो । मैं दूर देशान्तरसे आया हूँ । मेरा नाम जैत्रसिंह है। मैं कदंबराज्यका युवराज हूँ और आपका अनुग्रह प्राप्त करनेके लिए यहाँ आया हूँ। जिस दिनसे मैंने आपका यशोगान सुना है, उसी दिनसे मेरा हृदय अस्थिर हो रहा है। मुझे वैभवसे घृणा हो गई है, विषयवासनाओंसे मेरा चित्त उदास रहता है, अपनी प्यारी स्त्रियों तथा मित्रोंसे अब मुझे आनन्दका लाभ नहीं होता, मुझे अध्यात्म विद्यासे अनुराग हो गया है, इसलिए आप अनुग्रह करके मुझे आध्यात्मिक उपदेश दीजिए।"
भगवान् बुद्धने राजकुमारकी ओर कृपादृष्टिसे अवलोकन किया, परन्तु मुँहसे एक शब्द भी नहीं कहा । राजकुमार फिर बोला-" भगवन् ! क्या आप मेरे सन्तप्त अशान्त हृदयको अपने शीतल वचनोंके दो चार बिन्दुओंसे भी शान्त नहीं करेंगे ? क्या मैं आपकी कृपादृष्टिका पात्र नहीं हूँ ? स्वामिन् ! मैंने अपना जीवन बाल्यावस्थासे लेकर अबतक पवित्रताके साथ व्यतीत किया है, धर्मशास्त्रोंकी मर्यादाका मैंने आजतक कभी स्वप्नमें भी उल्लंघन नहीं किया है, अपने देशकी रीति-नीतिका मैंने भली भाँति पालन किया है, इसके सिवा मैंने धर्मग्रन्थोंका भी अध्ययन किया है । इतना सब होने पर भी क्या मैं आपका शिष्य होनेके योग्य नहीं हूँ?
"--नहीं।"
बस इतने ही अक्षर बुद्धदेवके मुँहसे निर्गत हुए। - "हे प्रभो, यदि ऐसा है, तो आपके शिष्य होनेकी योग्यता मुझमें कब आवेगी और मैं क्या करूँ जिससे मुझमें पात्रता आ जाय ?." • “खोज करो । खोज करनेसे तुम्हें स्वयं मालूम हो जायगा कि तुझे क्या करना चाहिए।"