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शिष्यकी परीक्षा।
ध्यान धारणा, प्राणायाम आदि किये हैं. वैभवका तिरस्कार किया है आर मात्र प्रकारके शारीरिक, और मानसिक कष्ट सहन किये हैं। अब तो आप मुझे अपना शिष्य बनाना स्वीकार करेंगे? "
उत्तर मिला-"नहीं।"
इस उत्तरसे खिन्न होकर राजकुमारने अपना मुँह दुपट्टेसे ढंक लिया । शोकसे उसका हृदय भर आया, नेत्रोंमें आँसू आगये और बहुत समय तक उसके मुहले एक शब्द भी न निकला । निदान भर्राई हुई आवाजसे उसने कहा,-"भगवन : क्या आप इस दासके साथ कुछ वार्तालाप करनेकी कृपा न करेंगे ? भार क्या यह भी न बतलावेंगे कि आप मुझे अपना शिष्य क्यों नहीं बनाते हैं ?"
बुद्धदेवने ध्यान विसर्जन करके कहा:-" तेजस्वी राजकुमार, वाह्यदृष्टि की परीक्षामें उत्तीर्ण हो जानेसे ही कोई दोक्षाका पात्र नहीं हो जाता । मैंने तुमसे स्त्रियोंके तथा दूसरे आनन्ददायक सुखोपभोगोंके त्याग करने के लिए नहीं कहा था। पूर्वजन्मानुसार जिस परीक्षामें-जिस कसौटीमें तुम्हें उतीर्ण होना है, वह तुम्हारे स्वभावकी ही है और उसमें तुम निष्फल-अनुत्तीर्ण हो गये हो। अपने राजमहलको तुम फिर लौट जाओ और सद्गुणी सदाचारी जीवन व्यतीत करते हुए शान्ति सुखका अनुभव करो । शिष्यका जीवन धारण करनेकी अभी तुम योग्यता नहीं है।"
राजकुमारके मुखपर कुछ अकचकाहटके चिह्न दिखने लगे । उसने करुणस्य रसे कहा;-'जिन प्रसंगोंमें मुझे निष्फलता हुई है-मैं उत्तीर्ण नहीं हुआ है। कृपा करके क्या आप उन्हें बतलावेंगे ? यद्यपि उन प्रसंगोंके सुननेसे मुझे लजित होना पड़ेगा, तो भी उनके सुननेकी मुझे तीव्र उत्कंठा है।" ___ भगवान् बुद्धदेवकी दिव्यध्वनि हुई:-"सुनो, मैं उन प्रसंगोंका वर्णन करता हूँ। तुम्हारी प्रथम परीक्षा लोकनिन्दाकी सहनशक्ति है। राजकुमार, एक बार तुम्हारे पिताके दरबार में तुमपर एक ऐसा अपराध लगाया गया था, जो वास्तवमें झूठा था। उसका तुम्हें स्मरण होगा। वास्तविक बात क्या है, इस बातका ज्ञान अन्तमें लोगोंको हो ही जाता, परंतु तुमसे इतना धैर्य नहीं रक्खा गया । कर्मवशात् मानभंग होनेका जो उक्त प्रसंग तुमपर आ पड़ा था, उसे तुम्हें सहन करना चाहिए था; परन्तु दोषमुक्त होनेके लिए और अपनी निर्दोषता सिद्ध करनेके लिए तुम व्याकुल हो गये और इसके लिए तुमने शस्त्र तक हाथमें ले लिया। इस तरह इस प्रथम परीक्षामें तुम पास नहीं हुए।"