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चपला।
अनुरोधसे वे गान्धार जाते अवश्य हैं; परन्तु चपलाके लिए उनका मन उद्विग्न हो रहा है। यह विचार करके तो उनके हृदयमें बड़ी ही पीड़ा होती है कि चपला मेरे प्राप्तिके क्षेत्रसे बिलकुल बाहर, बहुत दूर है-उसका पाना एक प्रकारसे असंभव है। और यदि मैं चपलाका प्रणयप्रार्थी बनूँगा तो मुझे युवराजकी मित्रतासे हाथ धोना पड़ेगा । बहुत कुछ सोच विचार कर अन्तमें उन्होंने मन-ही-मन संकल्प किया कि राज्यकी सेवाके लिए, भारतवर्षकी भलाई के लिए और कर्तव्य-पालनके लिए मैं अपने मनकी व्यथा मनमें ही छुपाकर रक्तूंगा।
८महाराजकी युद्धयात्रा। युवराज जिस समय राजधानीमें पहुँचे, उस समय दक्षिण प्रदेशसे समाचार आया कि मालवेकी सीमापर चेर राजाके विरुद्ध विद्रोह खड़ा हो गया है । इस विद्रोहके करनेवाले नम्बूरि और नायाबे लोग हैं । इतिहासमें इस विद्रोहका समय ईस्वी सन् ३८९ है । युवराज बहुत दिनोंके प्रवाससे लौटे थे, इसलिए अबकी बार महाराज समुद्रगुप्तने स्वयं ही दक्षिणापथको गमन किया । इस विद्रोहकी सुविधा पाकर महाराजने यह भी निश्चय किया कि चेर राज्यको जीतकर सिंहलद्वीपतक युद्धयात्रा की जाय और इसलिए बहुत बड़ी सेना के साथ उन्होंने राजधानीसे प्रयाण किया। - इस यात्रामें महाराजको दो वर्ष लग गये। इस बीच में राज्यका सारा कामकाज युवराज चन्द्रगुप्त ही देखते थे । युवराजको विश्वास था कि जहाँ प्रियवर्मा जैसा मंत्री है, वहाँ राज्यशासन करना बहुत ही सहज काम है । जिस समय विश्ववर्मा हूणोंकी गतिविधिका अच्छीतरहसे निरीक्षण करके राजधानीको लौटे उस समय महाराज सिंहलविजय करके लौट आये थे; पर इस यात्रामें उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया था, इस कारण अब भी राज्यका सारा कामकाज युवराज ही देखते थे।
सिंहलजय होनेके लगभग तीन वर्ष पीछे मालवेके शासनकती नरवमीका देहान्त हो गया। प्रियवर्माका एक तो वुढापा था और उसपर यह दारुण पुत्रशोक ! अब वे कभी किसी जरूरी कामके लिए ही दरवार में आते हैं, नहीं तो अपने घर ही रहा करते हैं। मालवेका शासनकर्ता कौन बनाया जाये, इस विषयमें युवराज चन्द्रगुप्तने जो प्रस्ताव किया, उसका महाराज समुद्रगुप्तने बड़ी असनतासे अनुमोदन किया। इस प्रस्तावकी बात आगेके परिच्छेदमें कही जायगी।