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चपला।
अवश्य ही कुछ बलाढय थे; परन्तु उनका प्रभुत्व केवल दक्षिणप्रदेशमें ही था; आर्यावर्तमें ( उत्तर भारतमें ) तो सर्वत्र विदेशियोंका ही प्रभाव विस्तृत हो रहा था। ईसासे पूर्व दूसरी शताब्दिमें जिस कालरात्रिका प्रारंभ हुआ था, उसका अन्त ईसाके बाद तीसरी शताब्दिमें हुआ-लगभग पाँचसौ वर्षतक भारतमें यह विदेशी अन्धकार बराबर फैला रहा ।।
इसी दीर्घकालव्यापी अन्धकारके अन्तमें गुप्तसाम्राज्यका अभ्युदय हुआ। यही भारतके सौभाग्य प्रभातकी शुभ सूचना थी। संभवतः श्रीगुप्त नामका राजा इस गुप्तवंशका प्रथम राजा था । श्रीगुप्तका पुत्र घटोत्कच हुआ। उसके राजत्वकालके बाद · ईस्वी सन् ३१९ में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यने नेपालसे लेकर नर्मदातकका देश जीतकर नूतन पुष्पपुर या कुसुमपुरमें राजधानी स्थापित की और इसी वर्षसे नये गुप्तसंवतका पहला वर्ष गिना गया।
प्राचीन पुष्पपुर या पाटलिपुत्र (पटना) में लिच्छवि-वंशके राजा हीनबल होकर राज्य करते थे; उनका राज्य मुख्यतः नेपालमें ही अच्छीतरह प्रतिष्ठित हुआ था। इन लिच्छवि राजाओंने गुप्तराजाओंकी अधीनता स्वीकार कर ली थी और उनसे विवाहसम्बन्ध भी कर लिया था ।
ईस्वी सन् ३५० में समुद्रगुप्तके राजत्वका आरंभ हुआ। समुद्रगुप्तका पुत्र द्वितीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य जिस समय युवराज था उसी समयकी एक घटनाका आश्रय लेकर यह आख्यायिका लिखी गई है। इलाहाबादके स्तम्भलेखसे मालूम होता है कि सारे आर्यावर्त, बङ्ग, कामरूप, कलिङ्ग और कौशल देशको समुद्रगुप्तने जीता था और केरलतकके दक्षिण भूभागमें भी वे राजाधिराज माने जाते थे । महाराज अशोकके बाद भारतवर्षके इतिहासमें ऐसे गौरवका दिन और नहीं है।
४ राजमन्त्री। महाराज समुद्रगुप्तके प्रिय मंत्री प्रियवर्मा, कुसुमपुरके राजमहल में बैठे हुए कुछ खत पत्र पढ़ रहे थे। इसी समय स्वयं महाराजने आकर पूछा-" राज्यमें कुशलता तो है ?” प्रियवर्मा उठकर खड़े हो गये। महाराजने बैठनेका इशारा किया। दोनोंके आसन ग्रहण कर चुकनेपर मंत्रीने कहा-“महाराज, इससमय शक, यवन आदि सब ही क्षत्रिय समझे जाने लगे हैं और लोग उन्हें आदरकी