Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 77
________________ ७२ ___ फूलोंका गुच्छा। . इन रुपयोंको खूब सावधानीसे बाँधकर वह उसी रातको अपने घरकी ओर चल दिया; सबेरेतक ठहरना उसके लिए असह्य हो उठा। जाते समय उसके मालिकने कहा-“तुम अपने साथ एक हथियार लिये जाओ, न मालूम कब कौनसी आपत्ति आ जावे " ऐसा कहके उसने एक अच्छी तलवार निकालकर उसकी कमरसे बाँध दी। कमलाप्रसाद घरसे बाहर हुआ। गाँवके बीचमेंसे जाते जाते उसके परिचित घर, घाट, रास्ता आदि उससे एक एक करके विदा लेते जाते थे और मानो वह सबहीसे मन-ही-मन कहता जाता था-अच्छा भाई, अब मैं जाता हूँ ! मैं जाता हूँ ! . (२) कमलाप्रसाद जा रहा है। इस समय वह प्रसन्न नहीं है-उसे बार बार रुलाई आती है । रह रह कर एक वेदना उसके मनको दुखित कर रही है कि-मैं घर जाकर अपनी मासे क्या कहूँगा ? वह कुछ रुपयोंकी आशा किये तो बैठी ही न होगी । मैं आते समय भैयाको खोजकर घर लौटा लानेका ढाढस दे आया थामा उसी भरोसे राह देखती बैठी होगी। कुछ दूर चल कर उसने अपने मनमें सोचा-खैर, इतने दिन राह देखी है, दो दिन और सही-देशमें पहुँचते ही मैं भैयाको खोज लानेका अवश्य ही प्रयत्न करूँगा। ग्राम पीछे रह गया । आगे एक बड़ा भयानक जंगल है । जंगलके बीचों बीच एक रास्ता है; उसी परसे वह जा रहा है। देखते देखते रात अधिक हो गई-अंधकार क्रमशः बढ़ने लगा; कहीं भी प्रकाशका चिह्न नहीं दिखाई देता। वृक्ष मानों नीचेसे ऊपरतक अंधकारकी राशिमें डूब गये हैं। अपना शरीर भी आपको दिखलाई नहीं देता । परन्तु कमलाप्रसादके मनमें इतनी उतावली है कि कोई भी बाधा उसको निरुत्साहित नहीं कर सकती; वह उस अन्धकारको ठेलता हुआ बराबर चला जा रहा है। उस घोर अन्धकारमें चलते चलते वह कब रास्ता भूल गया, इसकी उसे कुछ भी खबर नहीं। अंतमें जब वृक्षकी डालियोंने उसके शरीर में लगकर उसकी गतिको रोक दिया, तब वह अचानक भोंचकसा होकर खड़ा हो गया और रास्ता ढूँढ़नेके लिए चारों ओर भटकने लगा; परन्तु रास्ता नहीं मिला। खोजते खोजते वह थक गया और इधर उधर फिरते रहनेसे धीरे धीरे वह यह भी भूल गया

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