Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 83
________________ फूलों का गुच्छा । दीपशिखा दिखाई दी। अधिक विलम्ब करनेकी आवश्यकता न जानकर वह जल्दी से उस घर के अंदर चला गया। देखा कि एक मलिन शय्यापर डाँकू स्थिर हो कर पड़ा है और स्त्री उसके सिराने दीपक जलाकर बैठी है । उसे देखते ही वह विस्मित होकर उठ खड़ी हुई । कमलाप्रसादने जल्दीसे उसके पास रुपयोंकी थैली रख कर कहा - " यह लो, उस रातको तुमने मेरे लिए जो कुछ किया था उसका बदला मैं और किसी तरह नहीं चुका सकता । ७८ ܕܕ रुपयोंको देखते ही स्त्रीके मुखपर जो विषादकी छाया थी, वह मानो एकाएक दूर हो गई; वह गद्गदकंठसे बोली - " आज तुमने हम लोगोंको प्राणदान दिया ! हम लोग भूख से मर रहे थे । रुपयोंकी बात सुनकर डाँकू भी उठकर बैठ गया । कमलाप्रसाद जाता था; 'डाँकूने उसे इशारा करके बुलाया। वह धीरे धीरे उसकी शय्या के निकट जाकर - खड़ा हो गया । डाकूका हृदय कृतज्ञतासे भर आया । वह एक तो रोगों से घिर रहा था और इसपर भी भूखके कारण मर रहा था । इसके पहले वह अपने सम्मुख मृत्युकी छाया देख रहा था । इस निर्जनवनमें उसे कही भी कोई आशाका चिह्न नहीं दिखलाई देता था । पर यह क्या ? एक दिन वह जिसका जीवन अपहरण करने गया था वही आज उसे जीवन दान करने आया है । कमलाप्रसादके दोनों हाथों को अपने हाथ में लेकर वह रह गया - उसके नेत्रों में आँसुओं की बूंदें दिखाई देनें लगी। वह चाहता था कि कमलाप्रसादको हृदयसे लगाकर अपना हृदय शीतल करूँ, परन्तु ऐसा न हो सका वह शिथिल होकर शय्या पर गिर पड़ा । कमलप्रसाद चुपचाप उसके हृदयोच्छ्वासको देख रहा था । उसका हृदय भी द्रवित हो रहा था । वह उसकी शय्यापर बैठ गया । डाँकूने फिरसे उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया — उसके मनमें अनेक बातें उठने लगीं; परन्तु उससे बोला न गया । वह सोचने लगा—जिन लोगों के लिए मैंने आपत्तिको आपत्ति नहीं समझी, जिन लोगोंकी प्राणरक्षाके लिए अपने प्राणों तकको मृत्युमुखमें डालनेमें मैंने कभी आगा पीछा नहीं सोचा - वे ही मेरे अनुचर आज मेरी इस बीमारीमें मेरा सर्वस्व छीनकरके मुझे मृत्युके गहरे गढ़े में ढकेल गये हैं; और जिसको . मैं जान से मारने के लिए तयार था उसीने आकर आज मेरे प्राणोंकी रक्षा की

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