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फूलोका गुच्छा। राजकुमारीने लम्बी साँस लेकर कहा-“वे मेरे योग्य भले ही हों, परन्तु मैं उनके योग्य नहीं हूँ। मेरी समझमें उनके योग्य रणभूमि है प्रेमभूमि नहीं। तुम उनसे कह देना कि मेरी प्रगल्भता और ढिटाईको भूल जायँ ।"
राजकुमार चला गया।
भाईके चले जानेपर भद्रसामाका मन फिर हाथमें नहीं रहा । वह सोचने लगी-अच्छा प्रेम तो उत्पन्न हो जाता है पर उसके साथ योग्यता क्यों नहीं रहती ? क्या वह योग्यताको लेकर उत्पन्न नहीं होता? यदि नहीं तो फिर यह गुणदोषविचारकी प्रवृत्ति ही क्यों होती है ?
इसी समय राजा द्रोणायणने भी आकर पूछा-बेटी, एकाएक तुझे यह क्या हो गया ? झल्लकण्ठको तूने निराश क्यों कर दिया ? क्या तू नहीं जानती कि उसने अपने लिए क्या किया है ? उसने मुझे एक विशाल राज्यका स्वामी बना दिया है और मेरी बड़ी भारी लालसाको अनायास ही पूर्ण कर दिया है। अपना लड़कपन छोड़ दे और झल्लकण्ठसे विवाह करना स्वीकार कर ले। यह तुझे समझ रखना चाहिए कि तेरी मूर्खताके कारण मैं प्राप्त किया हुआ राज्य न छोड़ दूंगा; तुझे झल्लकण्ठके साथ ब्याह करना ही पड़ेगा।"
राजकुमारीने दृढ़ताके साथ कहा-"पिता, आप राज्यके लोभसे अपनी बेटीका विवाह करना चाहते हैं ! पर मेरी समझमें यह बेटीका विवाह नहीं-- बेचना है।"
द्रोणायण वाक्यबाणसे विद्ध होकर चला गया। . भद्रसामा सोचने लगी-“ कर्तव्य-पालनके लिए क्या मैं चित्तका दमन नहीं कर सकूँगी ? एक ओर प्रेम है और दूसरी ओर कर्तव्य । क्या प्रेमका आसन कर्तव्यसे ऊँचा है ? पर प्रेमपर विजय प्राप्त करना भी तो सहज नहीं है।" जिस तरह प्रबल पवनके झकोरोंसे समुद्र अस्थिर हो जाता है उसीतरह राजकुमारीका हृदय अस्थिर हो गया। प्रेम और कर्तव्यके परस्पर विरुद्ध भावोंने उसके चित्तमें द्वन्द्व युद्ध मचा दिया। कभी एक पक्षकी जीत होती है और कभी दूसरेकी। वह नहीं सोच सकती कि मैं क्या करूँ। वह ईश्वरसे प्रार्थना करने लगी कि हे दयामयप्रभो, मुझे सुमति दो और सन्मार्ग सुझाओ।
झल्लकण्ठ अपने स्वामीका राज्य वापिस माँगने लगा; परन्तु द्रोणायण टालटूल करने लगा। अन्तमें जब मन्त्री बहुत पीछे पड़ गया, तब द्रोणायण