________________
वीर-परीक्षा। दूतने एक चिट्ठी निकालकर मंत्रीके हाथमें दे दी। मंत्री उस चन्दन-केसरलिप्त पत्रको बाँचनेका प्रयत्न करने लगा; परन्तु वह व्यर्थ हुआ-उससे एक अक्षर भी न पढ़ा गया। उसकी आँखोंकी ज्योति चली जा रही थी । आखिर उसने पत्रिकाको माथेसे लगा कर चूम ली और दूतके हाथमें देकर कहा-''दूत, दैवने मुझे अपनी प्यारीकी पत्रिका बाँचनेसे वंचित कर दिया; परन्तु जबतक मुझमें सुननेकी शक्ति है तबतक तुम ही मुझे इसे पढ़कर सुना दो। मुझे अब
आँखोंसे कुछ भी नहीं सूझता । मृत्यु मुझे अपनी ओर खींच रही है । अब विलम्ब मत करो, जल्दीसे मुझे सुना दो कि प्यारीने मुझे क्या लिखा है।"
दूत पत्र पढ़ने लगा
“ सचिवश्रेष्ठ झल्लकण्ठकी सेवामें। प्यारे, आपके कर्तव्यंभ्रष्ट होनेसे मेरे हृदयमें सौ बिच्छुओंकी सी वेदना होती थी, आपको उचित मार्ग छोड़कर दूसरी दिशाको जाते देखकर मेरी छाती विदीर्ण हो रही थी, आपको स्वार्थान्ध देखकर-आपके वीरत्वमें कालिमा देखकर मेरे हृदयाकाशमें दुःखके काले बादल छा रहे थे-मैं एक तरहकी नरकयातना भोग रही थी। परन्तु अब आपको फिर गौरवान्वित देखकर मेरे आनन्दका कुछ ठिकाना नहीं है । आज आपकी कीर्ति-पताका देखकर मैं हृदयमें फूली नहीं समाती। अब मैं समझी हूं कि आपकी इस रणविजयने ही मुझपर विजय प्राप्त की है । अच्छा तो अब हे नयनरंजन, हे वीरप्रवर, आओ ! मेरे हृदयमंदिरमें प्रवेश करो! मेरा हृदयराज्य जीता जा चुका है, अब मुझे आपका विलम्ब असह्य है। आपके कीर्तिचन्द्रको जो राहुकलंक लग गया था, वह अब कहीं दिखलाई नहीं देता। हे मनोमोहन, आओ पधारो ! मेरा प्रेम पूर्ववत् अखण्ड है। उस पर जो कालीघाटा छा गई थी वह तितर बितर हो चुकी है। हृदयेश्वर, आज मैं तनमनसे आपकी उपासना करती हूँ और अपने नवयौवनका प्रथम अध्ये आपके चरणों में अर्पण करती हूँ !
पूजार्थिनी-भद्रसामा।" पत्र समाप्त हो गया । झल्लकण्ठने मरणरुद्ध कण्ठसे कहा- । दूत, मेरी ओरसे राजकुमारीको यह निवेदन करना-" देवी, मैं मूर्ख हूँ। तुम जैसी वीराङ्गनायें कैसे प्राप्त हो सकती हैं, यह मैं न समझ सका था। इसीलिए मैं अनुचित सन्धि करके कर्तव्यभ्रष्ट हुआ और तुम्हें भी न पासका । इस भूलका कष्ट असह्य था; परन्तु इस कारणसे मुझे कुछ शान्ति मिलती है कि यह मैंने तुम जैसे रमणीरत्नके