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वीर-परीक्षा।
बोला-"मैं तो कन्यादान करनेके लिए तैयार हूँ, पर कन्या राजी नहीं होती, इसमें मेरा क्या वश है ? तुम्ही उसे समझा-बुझा कर राजी क्यों नहीं कर लेते ?" इस पर झल्लकण्ठने भद्रसामाको प्रसन्न करनेके लिए कई वार प्रयत्न किया। परंतु जब उसने जरा भी सफलता होती न देखी, तब कहा-" बस, मेरे स्वामीका राज्य लौटा दो।"
द्रोणायण बोला-"कठिनाईसे पाया हुआ राज्य क्या कोई इसतरह लौटाता है ? मैं न लौटाऊँगा।"
झल्लकण्ठने कहा-“अच्छा, यदि मेरी भुजाओंमें बल होगा, तो लौटा लँगा।"
द्रोणायण बोला-"राज्य तो शायद लौटा भी लो; पर यह भी तो सोच लो कि तुम्हें अपने भुजबलसे—जिसका कि तुम्हें बड़ा गर्व है-मेरी कन्या तो नहीं मिल जायगी !" झलकण्ठने इसका कोई उत्तर न दिया।
(५) अपमानसे उत्तेजित हुआ झल्लकण्ट राज्य लौटानेकी लगातार चेष्टा करने लगा। इस कार्यमें उसने अपनी सारी शक्ति लगा दी। युद्ध पर युद्ध करके उसने अपना गया हुआ राज्य ही नहीं लौटा लिया, किन्तु द्रोणायणके राज्यके प्रधान प्रधान किलोंपर भी उसका झण्डा फहराने लगा। प्रायश्चित्त-प्रयासी मंत्रीके प्रबल आक्रमणोंसे द्रोणायणके पैर उखड़ गये, लाचार होकर वह सन्धि करनेकी चेष्टा करने लगा। __ झल्लकण्ठ अपनी छावनी में बैठा है । विजयके उल्लाससे उसका मुँह प्रसन्न दिखलाई देता है। उसकी छातीपर पड़ी हुई मोतियोंकी माला विजयमालाकी तरह शोभा दे रही हैं । उसके नेत्रों में एक अपूर्व ही तेज झलक रहा है । इस समय उसे भद्रसामाकी प्रथम प्रणयपत्रिकाकी याद आई। उसमें लिखे हुए वाक्य उसे ऐसे मालूम होने लगे, मानों वह कमलनयना ही किसी अदृश्य स्थानमें बैठी हुई उससे उक्त वचन कह रही है । सोचने लगा,-किसी कविने इन्हीं वचनोंको लक्ष्य करके ही कहा है;-- . म्लानस्य जीवकुसुमस्य विकाशनानि
सन्तर्पणानि सकलेन्द्रियमोहनानि ।