Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 62
________________ वीर-परीक्षा। अरुणवर्ण माला ऐसी मालूम होती थी जैसे उषा देवीके ललाटमें कुङ्कुमका तिलक । उसका सुप्रसन्न और सुन्दर मुख उस पुष्पवाटिकाका एक विलक्षण पुष्प . सरीखा मालूम होता था। पुष्पोंकी सुगन्धिसे भीगी हुई शीतल वायु बह रही थी। कपोतिनीका करुण-कूजन एक प्रकारका अपूर्व विषाद उत्पन्न करता था। इसी समय मंत्री झल्लकण्ठने पुष्पवाटिकामें प्रवेश किया। ___ कपोतिनी उड़ गई । मयूर अपना नृत्य बन्द करके बकुलवृक्ष पर जा बैठा और सखियाँ इधर उधर हो गई । राजकन्या जहाँकी तहाँ बैठी रही । उसके मुखपर लज्जा या संकोचकी झलक भी न थी। हाँ, उदासीनतासे मिली हुई घृणाकी छाया अवश्य ही उसकी चेष्टा पर दिखलाई देती थी। झलकण्ठ यह देख. कर भी अपनी प्रेयसीकी उस अवस्थापर मुग्ध होकर स्वर्गसुखका अनुभव करने लगा। __कुछ समय तक निस्तब्ध रहने के बाद राजकुमारीने मंत्रीकी ओर देखकर कहा-"मन्त्री महाशय, आपको मालूम होगा कि यह एक स्त्रीका क्रीड़ास्थल है; किसी राजनीतिज्ञके ठहरनेका स्थान नहीं !" ___ उस समय झलकण्ठ प्रणय-विह्वल हो रहा था। उसने स्नेहयुक्त स्वरसे कहा"प्रेयसी, प्रणयके कपटकौशलने मुझे यहाँ आनेका अधिकार दिया है, इसलिए आया हूँ। प्रेममयी, भावके आवेशमें मुझसे यदि कुछ सभ्यताका उल्लंघन हुआ हो, तो उसपर ध्यान न देकर मुझे क्षमा करो और मुझे अपना ही समझ लो।" यह कहकर वह आगे बढ़ा और उसने चाहा कि मैं भद्रसामाका हाथ पकड़ लूँ। इस समय मन्त्रीके ललाट पर पसीनेकी बूंदें झलक रही थीं और शरीर में कम्प हो रहा था। राजकुमारी चोट खाई हुई सर्पिणीके समान कुपित होकर बोली"सावधान मंत्री ! एक कुलीन महिलाको अपमानित करनेका यत्न मत करना।" झलकण्ठका वीर हृदय एक अबलाके आदेश-वाक्यसे काँप गया। वह विनीत स्वरसे बोला-'कुमारी, तुम्हारा उत्साह और तुम्हारी सम्मति पाकर ही मैं इस साहसके करनेके लिए तैयार हुआ था। अपनी पूर्वस्वीकारताका स्मरण करके मुझे अपने प्रेमके प्रसादसे वंचित मत करो।" भद्रसामा पहलेहीके समान तीव्रकण्ठसे बोली-“मैंने आपके वीरत्वपर मुग्ध होकर यदि आपको कोई स्वीकारता दी हो तो उसके लिए आप मुझे क्षमा करें। मैंने समझ लिया है कि मैं आपके सर्वथा अयोग्य हूँ। युद्ध होनेके बाद जब

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