Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 53
________________ फूलका गुच्छा । पांचों सवार तलवारें खींच कर भिक्षुको पकड़नेकी चेष्टा करने लगे । इसी समय किशनप्रसादने चिल्लाकर कहा, " और सत्यवती कहां है ? वह - जरूर ही किसी दूसरे रास्तेसे भाग गई है ! " "खबरदार किशनप्रसादको उसी रास्ते से जाते देखकर भिक्षुने गर्ज कर कहा, पापिष्ठ, खड़ा रह, अपने हाथसे अपनी मौतको मत बुला । ,, उसी समय बात की बात में भिक्षुने लपककर एक योद्धाके हाथसे तलवार छीन ली और फिर वह रणस्थल में अड़ गया । अपने विलक्षण हस्तकौशल और • असीम पराक्रमसे उसने चार योद्धाओंको बातकी बात में परास्त और निरस्त कर दिया । धराशायी योद्धाओंमेंसे रुद्रनारायणसिंह भिक्षुके सामने बहुत देर तक टिका रहा । अन्तमें उसने कहा, भिक्षु, तुम्हारा वीरत्व और युद्धकौशल अपूर्व है । बौद्ध धर्म छोड़कर यदि तुम क्षत्रिय धर्म ग्रहण करते, तो अवश्य - ही किसी विशाल राज्यको प्राप्त कर सकते । " 906 इसके उत्तरमें भिक्षुने कहा, "वीर, मैं इस समय तो धर्म की रक्षा के लिए अवश्य ही क्षत्रिय हूं; परन्तु कल फिर गलीगली में भटकनेवाला भिखारी हो जाऊंगा । इस समय डाकुओंके हाथसे इस भिखारीको अपने एक मात्र " धन इसी समय अन्धकारमेंसे किसी स्त्रीके कण्ठका शब्द सुन पड़ा । भिक्षुने देखा कि थोड़ी ही दूरपर राजकुमारी मन्द्रा धनुर्बाण लिये हुए खड़ी हैं । मन्द्राने कठोर स्वर से कहा, " भिक्षु, अपने धनरत्नके उद्धार करनेके पहले तू मेरे इस बाणसे अपना उद्धार करनेकी चेष्टा कर । " मन्द्राका निशाना अचूक था । उसका तीक्ष्ण बाण भिक्षुका बायाँ पैर पार करता हुआ निकल गया ! उस समय आकाश सघन मेघोंसे आच्छादित होता जाता था । ठंडी हवा खूब तेजी से चल रही थी । धीरे धीरे अन्धकार और और सघन होने लगा | मन्द्रा भिक्षुको न देख सकी । वह एक बार केवल यही सुन सकी कि, "सत्यवती, तुम निर्दोष हो । तुम्हारा कल्याण हो । ” भिक्षुका यह स्वर बड़ा ही करुण और दुःखपूर्ण था । इसी समय बिजली कड़कसे वनपर्वत कांप उठे । मन्द्राने अपने धनुर्बाणको फेंक दिया। वह उस गहरे अन्धकार में पाग - लिनी के समान पुकारने लगी, " तुम कहां हो ! भिक्षु, तुम कहां हो ! "

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