Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 16
________________ अपराजिता। ^ Www तरुणीने कातर होकर कहा--मैं अपने प्राण देकर भी यदि तुम्हें मुक्त कर सकती, तो करनेमें आनाकानी नहीं करती । तरुणीका यह वाक्य आँसुओंसे भीगा हुआ था। वसन्तने अपने हृदयमें उसका आई और कम्पमान् स्पर्श किया । उसने मुग्ध होकर कहा--राजकुमारियां क्या इस अभागीका कभी एक बार भी स्मरण नहीं करती हैं ? ___ "नहीं वसन्त. उन्हें ऐसी तुच्छ बातोंके विचार करनेके लिए कहां अवकाश है ? इन्दिरा, शुक्ला और आनन्दिता तीनों कर्नाटक, कलिंग और मद्रदेशके सिंहासनोंको भाग्यशाली बनानेकी चिन्तामें व्यग्र हो रही हैं।" " और राजकुमारी यमुना ?" “वह बेचारी साहसहीन, शक्तिहीन आर रूपहीन है। उसके बहिरंगको तो विधाताने ढंक रक्खा है और अन्तरंगको उसने स्वयं ढंक रक्खा है । फिर उसका कहां ऐसा भाग्य है, जो तुम्हारी कुछ चिन्ता कर सके । और जिस अन्तःपुरमें एक निरपराधी पुरुष पलपलमें मृत्युके मुखकी ओर जा रहा है, उसको छोड़कर तो वह कहीं जा ही नहीं सकती है । उसकी बहिनोंने जो पाप किया है, उसका प्रायश्चित्त उसे भोगना पड़ेगा।" । वसन्तने विस्मित होकर कहा--तो यमुना मेरा स्मरण करती है ? “ वसन्त, वह स्मरण ही क्या करती है रातदिन तुम्हारे नामकी माला जपा करती है। तुमने उसे जो इतने दिन पुष्पमालायें भेट करके, गायन सुनाकरके और प्रेमका पाठ पढ़ाकरके संतुष्ट किया है, सो आज क्या वह तुम्हें विपत्तिके मुँहमें डालकर भूल जायगी ? इतना बड़ा साहस करनेकी तो उसमें योग्यता नहीं है।" वसन्त लज्जित होकर बोला—मैंने तो उसे किसी दिन संतुष्ट नहीं किया है। मैं तो उसे बचे-खुचे गंधहीन फूलोंकी एकाध बेडौल माला बनाकर अनादरपूर्वक दे दिया करता था। सुभद्राने विनयपूर्ण कंठसे कहा--वह तो उसीको बड़े भारी आदरसे अपने मस्तकपर चढ़ाती थी । उसने अपने जीवनमें और अधिक कभी पाया ही न था, इस लिए तुम्हारे द्वारा वह जो कुछ अल्प स्वल्प पाती थी, उसीको बड़ी प्रसन्नतासे ग्रहण करती थी। “यदि ऐसा है, तो उसने मेरा प्रणयदान क्यों स्वीकार न किया ? "

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