________________
मधुस्रवा ।
३१
जयका बाजा बज उठा । चिकके अंतरालसे विजयगीत सुनाई देने लगे । राजाके विचार से सब लोग संतुष्ट हुए । केवल जिन लोगोंने विचार कराना चाहा थाने के ही वर्द्धन झुकाये बैठे रहे ।
हिन्दुरु उ/
30
DEND (पुस्तकालय )
मधुस्रवा ।
इलाहाबाद
( १ )
गुर्जर प्रदेश के अन्तर्गत कुसुम्भपुरके राजा बन्धुहित बड़े आनन्दसे राज्य - करते थे । कुमारी मधुस्रवाकी सेवा शुश्रूषाने, सेनापति बलाहकके शत्रुशासक पराक्रमने और सभाकवि क्षेमश्री के मधुर काव्यरसने राजाको सर्वप्रकार से चिन्ता -- मुक्त और आनन्दयुक्त कर रक्खा था ।
मधुस्रवाकी शरीरलतिकामें लावण्यका ललित कुसुम खिल रहा था, चञ्चल और विशाल नेत्रों में शुभ्र दूधकी धाराके समान भोली चितवन खेल रही थी; लहराते हुए अतिशय काले बालों और लीलामय चंचल गति से वह काली घटाके बीच में बिजली के समान मालूम होती थी ।
राजसभाका विशाल भवन समुद्रतटपर शोभा दे रहा था । वह सङ्गमर्मर आदि बहुमूल्य पाषाणोंसे बनाया गया था, उसकी दीवालोंपर तरह तरहके मणिमुक्ताजटित चित्र खिंचे हुए थे और उसके चारों ओर एक रमणीय उद्यान था | दक्षिणकी ओर विशाल समुद्र लहराता था, पूर्वकी ओर छोटीसी विशाखा नदी -जो कि आगे जाकर समुद्र में मिली है—- बहती थी,. उत्तर की ओर नगरसे लगा हुआ. मेघमालाके समान धूम्रधूसर मुञ्जकेश पर्वत ऊंचा सिर किये हुए खड़ा था और पश्चिम की ओर इलायचीकी लताओंसे आलिङ्गन करनेवाले चन्दन वृक्षोंका बगीचा था। समुद्रकी गर्जन, विशाखाकी कलकलध्वनि, मुंजकेशके वृक्षोंकी हरी हरी शोभा और उद्यानकी क्रीड़ा करती हुई सुगन्धित वायु राजसभा को बहुत ही मधुर बनाये रखती थी । साथ ही महाराजके समीप ही बैठी हुई मधुस्रवा अपनी रूपज्योति से उसे प्रकाशित किये रहती थी ।