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फूलोका गुच्छा।
चतुर किशनप्रसादने जहां तहां यह गप्प उड़ा दी कि बौद्ध भिक्षु बड़ा भारी योगी है; उसके योगबलकी प्रशंसा नहीं हो सकती । बस, फिर क्या था, झुंडके झुंड स्त्री पुरुष देवदत्तके घर आने लगे। इसके सिवा लालासाहब कभी कभी मौका पाकर सुन्दरी कुमारिकाओंको संन्यासनियोंके वेष में और रूपवती वेश्याओंको गृहस्थोंकी कन्याओंके वेषमें भी वहां भेजने लगे-इसलिए कि किसी तरह भिक्षुको विचलित कर दूं, परन्तु वे सब ही विफलमनोरथ होकर लौटने लगीं। उस बौद्ध भिक्षुके अजेय हृदय-दुर्गका एक अणु भी विचलित न हुआ । लालाजीकी झूठी गप्प सच हो गई। उसका असीम करुणामय मुख देखकर और उसकी स्नेहमयी वाणी सुनकर सैकड़ों स्त्री पुरुष बौद्धधर्म ग्रहण करने लगे। ___ यह बात धीरे धीरे राजकुमारीके कानों तक भी जा पहुंची । कृष्ण त्रयोद- . शीकी संध्याको उसने सेनापतिको आज्ञा दी कि “किशनप्रसादको इसी वक्त मेरे सामने ले आओ।"
तत्काल ही किशनप्रसाद हाजिर किया गया। सेनापतिको वहांसे चले जानेका इशारा करके राजकुमारी मन्द्राने गरज करके कहा "किशनप्रसाद, सच सच कहो, तुम्हारा क्या अभिप्राय है ?" किशनप्रसादने हाथ जोड़ कर कहा “राजकुमारी, आप सबकी माताके तुल्य हैं और मैं आपकी सन्तान हूँ। इसलिये मैं आपसे कुछ छुपाना नहीं चाहता । सत्यवती पर मेरा अनुराग हैमैं उसे हृदयसे चाहता हूँ; परन्तु मालूम होता है कि आपने इसे न जानकर इस दरिद्रके रत्नको किसी गूढ उद्देश्यसे दूसरेके हाथ देनेका संकल्प कर लिया है।"
मन्द्रा-पापी, तू चरित्रहीन तस्कर है। तेरे मुँह पर अनुराग और प्रेमकी बात शोभा नहीं देती।
किशनप्रसाद (विनीतभावसे)-मैंने धीरे धीरे अपना चरित्र सुधार लिया है। अब मैं सत्यवतीको ब्याहके किसी अन्य राज्यमें जाकर रहने लगूंगा !
मन्द्रा-वाह, कैसा निस्वार्थ भाव है ! अरे कृतघ्न, तू राजवंशके अन्नसे पलकर अब क्या विद्रोही बनना चाहता है ? किशन०-विद्रोही कैसा ? मैंने ऐसा कौनसा काम किया है ?