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विचित्र स्वयंवर।
मन्द्रा क्रोधसे जल उठी । उसने कठोर शब्दोंमें कहा-“कालीपूजा अवश्य होगी और उसमें सैकड़ों हजारों जीवोंका बलि दिया जायगा। क्या इससे तुम्हारी कुछ हानि है ? और क्या तुम जैसे क्षुद्र पुरुषोंमें उसके रोकनेकी शक्ति है ?"
राजा बहुत ही प्रसन्न होकर हँसने लगे। लोगोंने सोचा था कि मन्द्रा कालीपूजाके विषयमें विरोध करेगी; परन्तु उन्होंने देखा कि एकाएक इस रुकावटके आजानेसे उसका विचार बदल गया । मन्द्राका स्वभाव ही ऐसा था।
भिक्षु बड़े अभिमानके साथ ऊंचा मस्तक करके मन्द्राके प्रज्वलित नेत्रोंकी ओर स्थिर भावसे देखने लगा और बोला-"राजकुमारी मन्द्रा ! इस समय मैं तुम्हें ही काली समझता हूं। कहो, कितने हजार बलिदानोंसे तुम तृप्त होओगी?"
मन्द्रा-तू देवद्वेषी और दुराचारी है, इस लिए मैं पहले तेरी ही बलि लेकर तृप्त होऊंगी।
भिक्षु-यदि इस क्षुद्र जीवके बलिदानसे तुम्हारे और तुम्हारी प्रजाके हृदयमें करुणाका सञ्चार हो, तो मैं तैयार हूं। यह ठीक है कि दुर्दमनीय प्रकृतिकी संहारशक्तिको रोकनेका बल मुझमें नहीं है; तो भी यदि प्रकृति चाहे, तो वह स्वयं उसे रोककर संसारको आनन्दमय बना सकती है । इसलिए मैं उसे उत्तेजित या उद्दीपित करनेके लिए तत्पर हूं।
मन्द्रा-किस उपायसे? मिक्षु-केवल निमित्त बनकर अर्थात् सेवा करके, ज्ञानका प्रचार करके, और संयमकी शिक्षा देकरके । कुमारी, यह विशाल राज्य पतनोन्मुख हो रहा है । जब राजाके हृदयमें दया नहीं है और वह किसीको आत्मत्याग करना नहीं सिखलाता; तब तुम निश्चय समझो कि एक राजा मिटकर हजारों राजा हो जायेंगे और देशमें राष्ट्रविप्लव हो जायगा । जब. धर्मकी जलती हुई आग राजसिंहासनसे भ्रष्ट होकर अन्य आधार ग्रहण करती है और उस महान् विप्लवके समय करुणा, स्नेह, पवित्रता, साम्य, शान्ति और प्रीति आदि सद्गुण नहीं होते हैं, तब उसमें सब ही भस्म हो जाते हैं। इस बड़े भारी राज्यमें पापका प्रवेश हो गया है । यहां मद्य-मांसका