Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 41
________________ ३६ फूलोका गुच्छा। तक और दक्षिणमें गङ्गानदीके सुन्दर तटसे कलिङ्गके सघन वनपर्यन्त बढ़ा लिया था। वह समय प्रभावशाली बौद्ध धर्म और निर्वाणोन्मुख वैदिक धर्मके संघर्षणका था। इस संघर्षणका ही शायद यह प्रभाव था कि उस समयके राजाओंको सबेरे तन्द्रा आती थी। प्रबल प्रतापी सत्यसेन रातको जागता था और दिनको सोता था। ठीक ही है, जिसमें साधारण जीव नींद लेते हैं, उसमें संयमी पुरुष जागरित रहते हैं ! रौद्रमूर्ति राजा रातको तान्त्रिक बन जाता था और बड़े सबेरे वैदिक पूजापाठ समाप्त करके नौ बजेके पहले ही आँखे मूंदने लगता था। कोई कोई कहते हैं कि उस समय देशमें बौद्ध धर्मके अभ्युदयका वही असर था जो अफीमके नशेका होता है। __ अब तक जो थोड़े बहुत ग्रन्थ, पत्र, शिलालेख, ताम्रशासन, दानपत्र आदि पाये गये हैं, उनसे इस बातका पता लगता है कि सन्ध्याके पहले ही सत्यसेनके हाथ, पैर, खड्ग और चाबुक आदि खुल जाते थे और दोषी निर्दोषी, धार्मिक अधार्मिक आदि सबहीके कन्धों और पीठोंपर विना किसी विचार और आपत्तिके पड़ने लगते थे। सारी प्रजा थरथर कांपती थी। सत्यसेनके और कोई सन्तान न थी; केवल एक कन्या थी। उसका नाम था मन्द्रा । वह धनुर्बाण लेकर घोड़ेपर चढ़ती थी और चाहे जहां, जब चाहे तब, घूमा करती थी। वन, पर्वत जङ्गल, मरुस्थल और श्मशान आदि सब ही स्थानोंमें उसकी अरोक गति थी। निशाना मारनेमें वह एक ही थी। पशु पक्षी, सिंह व्याघ्र, चोर डाकू आदि सब उसके मारे काँपते थे। ___ मन्द्राका शरीर कृश था । उसके भ्रमर सरीखे काले काले बाल नितम्बदेशसे नीचेतक लहराते थे । बड़ी बड़ी और काली आँखोंके बीचमें उसकी तीक्ष्ण दृष्टि स्थिर रहती थी। षोड़शी गौरीके समान वह भुवनमोहिनी थी; परन्तु उसके मृणालके समान कोमल हाथ पत्थरसे भी अधिक कठोर थे। वह हरिणीके समान चञ्चल और वायुके समान शीघ्रगामिनी थी। ___ मन्द्राके स्वयंवरकी कई बार चर्चा उठी; परन्तु दो सौ योजनतककी दूरीके किसी भी वीरपुरुषका यह साहस न हुआ कि उसके साथ पाणिग्रहण करनेके लिए उद्योग करे।

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