Book Title: Fulo ka Guccha
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 18
________________ अपराजिता। है कि तुम सुभद्रा हो, तुम मुझपर प्यार करती हो और मैं तुमपर प्यार करता हूं। यह अन्तिम परिचय ही तुम मुझे दे दो। कहो, भद्रे, यदि मैं यहांसे छूटकर बाहर हो सकूँ, तो क्या तुम राजकुमारियोंका संग और राजमहलका ऐश्वर्य त्यागकर मेरी झोपड़ीमें रहनेके लिए चल सकोगी ? एक साधारण मालीका हाथ तुम पकड़ सकोगी ? ___ सुभद्राको बड़ी लज्जा मालूम हुई । वह अपने मुखसे कैसे कह दे कि मैं तुम्हें प्राणपणसे चाहती हूं! उसका हृदय बाहर आकर कहना चाहता था कि हां, मैं तुमपर प्यार करती हूं-तुम्हें चाहती हूं-सब कुछ छोड़कर मैं तुम्हारी झोपड़ीमें सुखसे रहूंगी-तुम्हें सुखी करना ही मेरा श्रेष्ठ ऐश्वर्य और अन्तिम आकांक्षा है; परन्तु लज्जा उसको बोलने न देती थी। वह अभी तक जो इतनी बातचीत कर रही थी सो इस कारण कि एक तो वसन्तके और उसके बीचमें आड़ थी और दूसरे वसन्त उससे परिचित न था; परन्तु अपरिचिता और ओटमें होनेपर भी वह अपने मुखसे किसी तरह प्रणय-निवेदन न कर सकती थी। __उत्तर न पाकर वसन्तने फिर कहा-कहो सुभद्रे, कहो । इस हतभागीका सुख-दुःख जीवन-मरण तुम्हारे ही उत्तरपर निर्भर है ! क्या तुम इस सामान्य मालीको ग्रहण कर सकती हो ? __ सुभद्रा लज्जासे सकुचकर बड़ी कठिनाईसे मृदु स्वरसे बोली-वसन्त, यदि तुम सामान्य हो, तो मैं भी तो असामान्या नहीं हूं। तुम यदि मुझे काली कुरूपा जानकर भी ग्रहण करोगे, तो तुम्हारी झोपड़ी मेरे लिए अट्टालिकासे भी बढ़कर होगी। ___ इन थोड़ेसे वाक्योंको कहकर सुभद्रा, अपने आप मानो लाजके मारे मर गई। वसन्तने उसके हाथ दबाकर कहा--सुभद्रा, मैं जीऊंगा--तुम्हारे लिए ही जीऊंगा ! अब तुम मेरे लिए कुछ लिखनेका सामान ला दो , जिससे मैं अपने मुक्त होनेकी तजवीज कर दूं। ___“रात होनेपर ला दूँगी," ऐसा कह कर सुभद्रा अपने प्रेमीकी व्यग्र मुट्ठीको शिथिल करके और उसमेंसे अपने हाथ छुड़ाकरके चली गई। कैदीकी आनन्द-रागिनीसे आज सारा राजमहल एकाएक चकित स्तंभित हो गया। उस भुवन-मोहिनी-ध्वनिसे प्रत्येक श्रोताके हृदगमें आनन्दकी

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