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अपराजिता ।
__यमुना नीचा सिर किये हुए नखोंसे जमीनपर कुछ लिखने लगी । अपनी गर्विता बहिनोंके और स्नेहहीन पिताके समक्ष उसे यह लांछना और लज्जा असह्य हो गई।
वसन्त यद्यपि उस समय सबसे वार्तालाप कर रहा था; परन्तु उसके नेत्र व्याकुल होकर अन्तःपुरके चारों ओर प्रत्येक किबाड़की ओटमें किसीको खोजते फिरते थे । उसकी सुभद्रा कहां है ? उसकी सेविका कहां है ? उसकी प्यारी कहां है ? वह तो उसके सुखको पहचानता नहीं हैपहचानता है उसके हाथोंको, उसके कंठस्वरको और उसके सदय हृदयको।
अपनी याचनाका उत्तर न पाकर वसन्तके नेत्र यमुनाकी ओर फिर आये । यमुनाके हाथ देखकर उसके आश्चर्यका ठिकाना न रहा । ये वे ही हाथ थे, जो उस कारागारके अंधकारमें प्रकाश करके उसे धीरज बँधाते थे ! वे ही अंगुलियां, वे ही हथेलीकी रेखाएँ और वही पहुंचीपरका तिल; सब कुछ वही था।
वसन्तका मुख आनन्दसे खिल उठा । प्रणयकृतज्ञताके मोहन स्पर्शसे यमुनाकी मूर्ति वसन्तकी दृष्टिमें अतुलनीय रूपवती झलकने लगी । एक अतिशय सुन्दर, चित्रकिशोर और अशरीरी देवताके वरसे वसन्तकी दृष्टि में जो प्रेमका अंजन अँज गया था, उसके कारण वसन्तको दिखाने लगा कि यमुना अनुपम यौवनसे, आनन्दसे, माधुर्यसे, सौंदर्यसे और कल्याणसे जगमगा रही है। वसन्तने उस समय काशीराजकी ओर फिर कर रहाआपसे मैं एक भिक्षा चाहता हूँ।
“भिक्षा ? महाराज, आप यह क्या कह रहे हैं ! ऐसे शब्द कहकर अपराधीके अपराधको और मत बढ़ाइए । मुझे तो आदेश - कीजिएआज्ञा दीजिए।" __ " अच्छा, आपने जो मेरा अपराध किया है, उसके दंडस्वरूप मैं आपके भांडारका एक बहुमूल्य रत्न लेना चाहता हूं।"
" यह तो आपकी कृपा है, और मेरा सौभाग्य है। कहिए, कोषाध्यक्ष आपकी आज्ञाकी प्रतीक्षा कर रहा है ।"