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अपराजिता। वसन्तको देखकर कठोर कवचको धारण करनेवाले पहरेदारके भी नेत्रोंमें आंसू आ गये। वाह ! कैसा सुकुमार रूप है ! इस कोमल और मधुरस्वभावी वसन्तको क्या शूलीपर चढ़कर प्राण देने होंगे?
सजाने राजकन्याओंसे अनुनयके स्वरमें कहा-बेटियो, यह तो पागल है। इसको न हो, तो राजधानीसे निकलवा दो ! बस, इतनेहीसे सब बखेड़ा मिट जायगा।
परन्तु राजकुमारियां अपनी प्रतिज्ञासे न हटीं। सेवकके रक्तसे :वे अपने नेत्रोंमें आनन्दका अंजन अवश्य लगावेंगी। उसके हृदयको दलित करके वे अपने पैरोंको रँगे बिना न मानेंगी। __अन्तमें राजाने बड़े कष्टसे आज्ञा दी कि वसन्त जीवन भर कैदमें रक्खा जाय। ___ कुमारियोंने कहा-अच्छा, यदि कैदहीकी आज्ञा है, तो यह अन्तःपुरके कारागारमें रक्खा जाय । वहां रखनेसे इसके कारण हमारा कुछ समय आनन्दसे कटेगा।
राजाने कहा—तथास्तु।
अन्तःपुरकी दयामयी देवियोंका जिनपर कोप होता था, उन अभागियों के लिए अन्तःपुरमें एक अन्ध-कारागार बनाया गया था। यह कारागृह अपने लोहकपाटरूपी दन्त मिलाकर जिसे ग्रास बनाता था, उसे जीर्ण या सत्त्वहीन किये बिना बाहर न निकालता था । इन कपाटोंमें कहीं थोड़ीसी भी संधि न थी, जिसमेंसे बाहरका थोड़ा बहुत प्रकाश भीतर भूलसे भी आ जाय। केवल थोडीसी हवा आनेके लिए दीवाल और छतकी जोड़में दो चार छोटे छोटे छिद्र थे और भोजन देनेके लिए एक पात्रके जाने योग्य छोटासा ताक था । मरण जल्दी न हो जाय, इसके लिए यह थोड़ासा सुभीता था, रोगीको आराम देनेके लिए नहीं । दयामयी देवियोंकी आज्ञा थी कि प्रकाश, हवा और भोजन जितना जा सके, इन सब द्वारोंसे बेखटके चला जाय; परन्तु आज्ञा होनेपर भी उक्त द्वारोंसे प्रकाश और हवा असंकोच भावसे नहीं जा सकती थी। क्योंकि जिस स्थानमें छिद्र थे, उसके आगे एक और पत्थरकी ऊंची दीवाल खड़ी थी और जो भोजन देनेका द्वार था, उसमें एक साधारण कटोरेसे बड़ी कोई चीज न जा सकती थी। इसके भीतर जो अभागी पहुँच जाता था, उसे धैर्यके साथ मरनेकी प्रतीक्षा