Book Title: Divsagar Pannatti Painnayam
Author(s): Punyavijay, Suresh Sisodiya, Sagarmal Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 16
________________ भूमिका सुत्ताइं ग्रन्थ की प्रस्तावना के पृष्ठ २३-२८ देख लेने की अनुशंसा करते हैं। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के कर्ता प्रस्तुत प्रकीर्णक में प्रारम्भ से अन्त तक किसी भी गाथा में ग्रन्थकर्ता ने अपना नामोल्लेख तक नहीं किया है । ग्रन्थ में ग्रन्थकर्ता के नामोल्लेख के अभाव का वास्तविक कारण क्या रहा है ? इस सन्दर्भ में निश्चय पूर्वक भले ही कुछ नहीं कहा जा सकता हो, किन्तु प्रबल संभावना यह है कि इस अज्ञात ग्रन्थकर्ता के मन में यह भावना अवश्य रहो होगी कि प्रस्तुत ग्रन्थ की विषयवस्तु तो मुझे पूर्व आचार्यों या उनके ग्रन्थों से प्राप्त हुई है, इस स्थिति में मैं इस ग्रन्थ का कर्ता कैसे हो सकता हूँ? वस्तुतः प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों के समान हो इस ग्रन्थ के कर्ता ने भी अपना नामोल्लेख नहीं किया है। इससे जहाँ एक ओर उसकी विनम्रता प्रकट होतो है वहीं दूसरी ओर यह भी सिद्ध होता है कि यह एक प्राचीन स्तर का ग्रन्थ है। ग्रन्थकर्ता के रूप में इतना तो निश्चित है कि यह प्रन्थ किसी श्रुत स्थविर द्वारा रचित है। द्वीपसागरप्राप्ति-प्रकीर्णक और उसका रचनाकाल द्वीपसागरप्रज्ञप्ति-प्रकीर्णक (दीवसागरपण्णत्ति-पइण्णयं ) प्राकृत भाषा की एक पद्यात्मक रचना है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख स्थानांगसूत्र में मिलता है । स्थानांगसूत्र में निम्न चार अंगबाह्य-प्रज्ञप्तियों का उल्लेख हुआ है-(१) चन्द्रप्रज्ञप्ति, (२) सूर्यप्रज्ञप्ति, (३) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और (४) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ।' स्थानांगसूत्र में द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के इस नामोल्लेख से यह तो स्पष्ट है कि स्थानांगसूत्र के अन्तिम संकलन एवं संपादन से पूर्व इस ग्रन्थ का निर्माण हो चुका था। स्थानांगसूत्र की अन्तिम वाचना का समय पाँचवीं शताब्दी के लगभग माना जाता है। इस आधार पर यही सिद्ध होता है कि पाँचवीं शताब्दी के पूर्व द्वीपसागर. प्रज्ञप्ति की रचना हो चुकी थी। स्थानांगसूत्र के पश्चात् नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में द्वीपसागर१. चत्तारि पण्णत्तीओ अंगबाहिरियाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-चंदपण्णत्ती, सूरपण्णत्ती, जंबुद्दीवपण्णत्ती, दीवसागरपण्णत्ती।। ( स्थानांगसूत्र, मुनि मधुकर, सूत्र ४/१/१८९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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